शनिवार, 13 मई 2017

= ३९ =


卐 सत्यराम सा 卐
शून्य सरोवर हंस मन, मोती आप अनंत ।
दादू चुगि चुगि चंचुभरि, यौं जन जीवैं संत ॥ 
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*ज्ञान की अनंतता* 
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भगवन् बुद्ध एक बार आनन्द के साथ एक सघन वन में से होकर गुजर रहे थे। रास्ते में ज्ञान चर्चा भी चल रही थी।
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आनन्द ने पूछा - “देव ! आप तो ज्ञान के भण्डार हैं। आपने जो जाना क्या आपने उसे हमें बता दिया ?”
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बुद्ध ने पलटकर पूछा - “इस जंगल में भूमि पर कितने सूखे पत्ते पड़े होंगे ? फिर हम जिस वृक्ष के नीचे खड़े हैं उन पर चिपके सूखे पत्तों की संख्या कितनी होगी ? इसके बाद अपने पैरों तले जो अभी पड़े हैं वे कितने हो सकते हैं ?”
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आनन्द इन प्रश्नों का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थे। मौन तोड़ते हुए तथागत ने स्वयं ही कहा - “ज्ञान का विस्तार इतना है जितना इन वन प्रदेश में बिछे हुए सुखे पत्तों का परिवार। मैंने इतना जाना जितना ऊपर वाले वृक्ष का पतझड़। इसमें भी तुम लोगों को इतना ही बताया जा सका जितना कि अपने पैरों के नीचे कुछेक पत्तों का समूह पड़ा है।”
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ज्ञान की अनन्तता को समझते हुए उसे निरन्तर खोजते और जितना मिल सके उतना समेटते रहने में ही बुद्धिमत्ता है।

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