शनिवार, 20 मई 2017

= ५१ =

卐 सत्यराम सा 卐
जब मन मृतक ह्वै रहै, इन्द्री बल भागा ।
काया के सब गुण तजै, निरंजन लागा ॥ 
आदि अंत मधि एक रस, टूटै नहीं धागा ।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ॥ 
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साभार ~ My Spirituality : Discourses
*महाप्रस्थान पर्व :*
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प्रश्न गिरे, जिज्ञासा समाप्त हुई, जिज्ञासा समाप्त हुई यानि कि सहस्त्रधार में खिले हज़ारो रौशनी को समेटे हुए बुध्ही के उस सूर्य का उदय हुआ जो अंदर के सारे अँधेरे को समाप्त कर देता है उस मानसिक स्थिति तक आते आते व्यक्ति स्वयं ही सक्षम हो जाता है, उसके सारे प्रश्न गिरते ही सहारे के लिए खड़ी हुई सारी दीवारे भी खुद ब खुद गिर जाती है । फिर कोई सहारा उसको सहारा नहीं दे सकता, सारे सहारे महत्वहीन हो जाते है। क्यूंकि वहाँ तक कोई जा ही नहीं सकता साथ में, वहाँ उस एक को ही जाना है। बड़ी प्रतीक कथा है युधिष्ठिर अपने सभी भाईयों और द्रौपदी के साथ स्वर्ग की अंतिम यात्रा पे निकलते है, परिवार के शेष लोग महाभारत के युध्ह में समाप्त हो चुके है, बड़े बुजुर्ग भी शेष नहीं बचे। एक कुत्ता साथ में है। सारथि और रथ तथा रथ चलाने वाले घोड़े। सब से पहले सारथि और रथ का साथ छूटता है पैदल यात्रा शुरू होती है, फिर एक एक करके जैसे जैसे वे ऊपर को चढ़ते जाते है, पहाड़ो की उंचांईयों पे शरीर एक एक करके गिरने लग जाते है, ये सारथि और ये घोड़े सुख सुविधा और साधन का प्रतीक है, और गिरते हुए शरीर प्रतीक है गिरते हुए जिस्मानी रिश्तो के वासनाओं के इक्षाओं के, एकएक शरीर गिरता जाता है, और धर्म राज स्वर्ग के लिए चलते रहते है, कुत्ता उनके कर्मो का प्रतीक है। जो अंत तक उनके साथ चलता है। कहते है कि अंत में स्वर्ग से विमान आके उनको सशरीर स्वर्ग ले जाता है और साथ में कुत्ता भी है। इसको ऐसे भी समझा जा सकता है कि उस स्थिति तक आते आते शरीर के होने न होने का भेद ही समाप्त हो जाता है, प्रश्न और संशय तो बहुत पहले ही छूट चुके होते है। वो मन इस मन के पार हो चूका होता है। शायद यही वास्तविक स्थिति का आत्मज्ञान है। जहा तक पहुँचने के लिए व्यक्ति लगातार यात्रा कर रहा है और जिस अनुभव की छोटी को छूने के लिए हर सम्भव सहायता भी ले रहा है।
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बैचैनी उद्विगनता इस राह में साधक की सहयात्री हो जाती है, दुखः संताप से भरे हुए ही इस सत्य की राह में चलने को आतुर साधक को जगह जगह फैले हुए मिलते है, यही कारन है, धैर्य और संतोषका धागा मजबूती से पकड़ने को कहा जाता है। और ये भी कि युधिष्ठिर के समान ही इस स्वर्ग की राह में नेति नेति के सिद्धांत से एक एक करके सब छोड़ना है। फिर भी कर्म रुपी कुत्ता अंत तक आपके साथ चलेगा। उस लोक तक आपके साथ ही जायेगा।
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जिन्होंने कथाओं के प्रतीक को समझा, चरित्र से बाहर निकल के, वे ही वक्ता का मूल-मर्म समझ पाएंगे।
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कितनी अद्भुत प्रतीक कथा है, जब स्वर्ग_यात्रा के लिए युधिष्ठिर महल से निकलते हैं; उनके साथ वैभव है रिश्ते है, साधन है, यद्यपि ये भाव आ चूका है कि अब वो सब संसार से विमुख होने जा रहे है, फिर भी संसार की सुविधाजन्य वस्तुओं से सम्बन्ध बना हुआ है, लौकिक सम्बन्ध रिश्ते भावजन्य पोषण कर रहे है, एक दूसरे को सहारा दे रहे है। आगे की यात्रा में देखिये कितना और कैसे कैसे उनको छोड़ते ही जाना है। धीरे धीरे साथ चल रहे एक एक शरीर कमजोर और शिथिल हो के गिरने लगता है, ये एक एक शरीर ही नहीं एक एक सम्बन्ध भी गिरने शरीर लगता है, एक एक भाव गिरता जाता है, एक एक रिश्ता एक एक प्रेम की डोर गिरती जाती है। एक एक जिज्ञासा, एक एक तर्क एक एक कष्ट बीमारी दर्द .... जो शरीर और आत्मा दोनों से जुड़ा है, सब गिरता है
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आगे कथा में है; इंद्र का रथ युधिष्ठिर को लेने के लिए आता है, तो इंद्र के रथ में स्वर्ग साथ चलने के प्रस्ताव पर युधिष्ठिर कहते है वे अपने भाईयों और द्रौपदी के साथ ही रहेंगे, इंद्र अपने दूत को छोड़ने को तैयार है जो उनके भाईयों को स्वर्ग का रास्ता दिखायेगा, किन्तु युधिष्ठिर नहीं मानते और उनके साथ चलते रहते है, इंद्र भी साथ ही चल रहे है, एक स्थान के बाद इंद्र कहते है अब ये लोग नहीं जा सकते इनको शरीर त्यागना पड़ेगा। तभी युधिष्ठिर उनके कर्मो के गढ़हे भी भरने में प्रयत्न शील है कि अचानक युधिष्ठिर के कानो में प्रियजनों की दर्द भरी आवाज़े आनी शुरू हो जाती है जो धीरे धीरे भारी और गहरी होती जा रही है , नकुल कह रहे हैं, युधिष्ठिर हमें साथ रहने दो। भीम अंतिम समय की अत्याधिक दर्द से रो रहे है, अर्जुन भी शरीर से शक्तिहीन हो चुके हलकी डूबती आवाज़ से कराह रहे है उनकी आवाज को पहचानना भी कठिन हो रहा है युधिष्ठिर के लिए। द्रौपदी किसी तरह सिमित अल्प शक्ति से हाथ हिला कर रोक पा रही है, आवाज़ तो निकल ही नहीं रही। इंद्र ने फिर पूछा क्या तुम इनके पास वापिस लौटना चाहोगे ? युधिष्ठिर ने फिर भी उनका साथ दिया और कहा कि हाँ, मैं उनके साथ रहना चाहूंगा इन सबने अपने जीवन में सच्चा काम किया।"
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कथा में है कि युधिष्ठिर के इतना कहते ही इस अत्यधिक पीड़ा के समय अचानक समाप्त हो गया, दिव्या अलोक से वातावरण भर गया, सुगंध फ़ैल गयी। सब ने शरीर त्याग दिया आत्मरूप में आ गए तथा युधिष्ठिर सशरीर इंद्र के रथ पे अपने कुत्ते के साथ स्वर्ग गए । आप समझ सकते है प्रतीक कथाओं का मर्म कि वो क्या कहना चाह रही है। ये प्रतीक कथाएं हैं, यहाँ शरीर गिर भी गए तो क्या आत्माए साथ ही साथ है, तो कथा पढ़ के भी आनंद मिलता है विछोह का भाव नहीं आता, पीड़ा नहीं महसूस होती, पर प्रत्यक्ष में आप मोह वश भी ऐसा नहीं सोच सकते है। जबकि विचार दो चार आत्माओं का न होकर उस परम में आत्मसात होने का हो तो प्रियजन झुण्ड बनाके साथ साथ हर जगह नहीं जा सकते। ये यात्रा आपकी अपनी है, आपकी अकेले की है।
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विचार करें की .... अंततोगत्वा, क्या बचता है इस राह में ? विचार करना आवश्यक है इस मनरुपी फल को पकाने के लिए, क्यूंकि निश्चित ही ये यधिष्ठिर आप ही है और ये कुत्ता स्वरुप भी आपका ही कर्म फल है सम्बन्ध भी आपके ही है, और ये यात्रा भी आपकी ही है।
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ॐ ॐ ॐ

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