#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*माया का अँग १२*
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साधु न कोई पग भरे, कबहूं राज दूवार ।
दादू उलटा आप में, बैठा ब्रह्म विचार ॥ २८ ॥
सत्संग को प्राप्त कोई भी सन्त माया की अधिकता वाले राजादि के द्वार पर माया की प्राप्ति के लिए नहीं जाता, प्रत्युत ब्रह्म - विचार द्वारा अपने स्वरूप में ही स्थिर होता है ।
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*आशय - विश्राम*
दादू अपने अपने घर गये, आपा अँग विचार ।
सहकामी माया मिले, निष्कामी ब्रह्म संभार ॥ २९ ॥
२९ में कहते हैं - प्राणी को अपनी वासनानुसार ही स्थान मिलता है । जिनके अन्त:करण में जैसा अँहकार था, उस अहँकार के अनुसार विचारों से जिन - जिन स्थानों की उन्होंने आशा की थी, उन - उन अपनत्व वाले स्थानों में ही वे चले गये हैं । सकामियों को मायिक भोग मिल गये और निष्कामियों को ब्रह्म विचार द्वारा ब्रह्म प्राप्त हो गया है ।
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*माया*
दादू माया मगन जु हो रहे, हम से जीव अपार ।
माया माँहीं ले रही, डूबे काली धार ॥ ३० ॥
३० में कहते हैं - माया प्रेमियों का उद्धार नहीं होता - हमारे समान मानव देह धारण करने वाले अपार जीव जो मायिक पदार्थों के राग में निमग्न होकर रहे हैं, उनको माया ने अपने बाहर परब्रह्म की ओर नहीं जाने दिया, वे माया की अज्ञान रूप काली - धार में डूबकर कर जन्मादि क्लेश ही भोग रहे हैं ।
(क्रमशः)
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