सोमवार, 29 मई 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(९-१२)

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सतगुरु सूं सहजैं मिल्या, लिया कंठ लगाइ ।*
*दया भई दयाल की, तब दीपक दिया जगाइ ॥*
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साभार ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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रज्जब रजा१ खुदाइ की, पाया दादू पीर२ ।
कुल३ मंजिल४ महरम५ किया, दिल नाहीं दिलगीर६ ॥ ९ ॥
ईश्वर की इच्छा१ से ही सिध्द२ गुरु दादू जी प्राप्त हुये हैं, उन्होंने प्रभु को प्राप्त करने वाले साधन मार्ग के सभी३ पड़ावों४ का मुझे मर्मज्ञ५ कर दिया है, अब मैं अपने हृदय में दुखी६ नहीं होता ।
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रज्जब रज१ मा२ पाइया, गुरु दादू दरबार ।
धरे३ अधर४ का सुख लह्या, सन्मुख सिरजनहार ॥ १० ॥
गुरु दादू जी के सत्संग रूप दरबार में जाने से हृदय - मध्य१ ही ज्ञान रूप प्रकाश२ वा बल प्राप्त हुआ है, जिससे परमेश्वर को सन्मुख देखते हुये, हमने मायिक३ और ब्रह्म४ सुख प्राप्त किया है । यही गुरु ज्ञान की विशेषता है, गुरु ज्ञान बिना उपासक को विरह-वेदना के कारण मायिक सुख दु:ख होते हैं और ब्रह्म सुख मिलता नहीं ।
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रज्जब को मिल्या, गुरु दादू दातार ।
दुख दरिद्र तब का गया, सुख संपत्ति अपार ॥ ११ ॥
मुझको अदभुत योग्यता वाले और ज्ञानादि के प्रदाता दादू जी गुरु रूप में प्राप्त हुये हैं, तभी से मेरा अज्ञान जन्य दुख तथा भोगाशा रूप दरिद्र चला गया है और सुमति रूप संपत्ति तथा अनन्त ब्रह्म सुख मुझे प्राप्त हुआ है ।
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देखो पारस परस तों, लोहे लाभ सु लीन्ह ।
रज्जब गुरु दादू मिलत, सो गति१ हमसों कीन्ह ॥ १२ ॥
सज्जनो ! देखो ! पारस से स्पर्श होते ही लोहे ने सुवर्ण में परिवर्तनरूप सुन्दर लाभ प्राप्त किया है, वैसे ही गुरुदेव दादू जी से मिलने पर वही परिवर्तन रूप दशा१ दादू जी ने हमारी कर दी है अर्थात अन्त:करण से भव - भावना हटा कर उसमें ब्रह्म भावना भर दी है ।
(क्रमशः)

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