शनिवार, 27 मई 2017

= ६५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम करी पुकार ।*
*ताथैं साहिब ना मिल्या, दादू बीती बार ॥* 
*अंदर पीड़ न ऊभरै, बाहर करै पुकार ।*
*दादू सो क्यों करि लहै, साहिब का दीदार ॥* 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

*संसार उदास है।* 
लाख लोग मुखौटे लगा लें हंसी के, आंसू छिपाए छिपते नहीं हैं। लाख आभूषण पहन लें सौंदर्य के, हृदय घावों से भरा है। इस संसार में कांटे ही कांटे हैं। फूल तो केवल वे ही देख पाते हैं जो स्वयं फूल बन जाते हैं। इस संसार में कांटे ही कांटे हैं, क्योंकि हम अभी कांटे हैं। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। तुम्हें वही मिलता है जो तुम हो। उससे ज्यादा मिलना असंभव है। तुम्हारी पात्रता के अनुकूल मिलता है। तुम्हारे पात्र अभी आंसू ही सम्हाल सकते हैं। *इसलिए अमृत की आकांक्षा भला करो, आकांक्षा कोरी की कोरी रह जाएगी। अमृत पाने के लिए अपने पात्र को निखारना होगा, साफ करना होगा, अमृत के योग्य बनाना होगा।*
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*प्रभु को तो पुकारते हो, मगर उस अतिथि के लिए बिठाओगे कहां? घर में कोई उसके बिठाने योग्य सिंहासन भी तो नहीं है। वह द्वार पर आकर खड़ा हो जाएगा तो और भी तड़पोगे। कहोगे : आज ही घर में बोरिया न हुआ ! सिंहासन तो दूर, बिछाने के लिए बोरिया भी नहीं होगा।*
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परमात्मा को पुकारना हो तो पुकार के पहले हृदय की एक तैयारी चाहिए; हृदय में एक धार चाहिए, निखार चाहिए। हृदय में एक उत्सव चाहिए, वसंत चाहिए। *हृदय गुनगुनाता हुआ हो, प्राण नाचते हुए हों।* सारे द्वार-दरवाजे खुले हों कि आएं सूरज की किरणें और नाचें, कि हो बरसा की बूंदाबांदी, कि आए पवन।
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प्रकृति के लिए खुलो तो परमात्मा के लिए खुल सकोगे, क्योंकि परमात्मा प्रकृति में ही छिपा है। प्रकृति उसका ही आवरण है, उसका ही घूंघट है। लेकिन हम प्रकृति के लिए भी बंद हैं और परमात्मा के लिए भी बंद हैं। हम प्रेम के लिए ही बंद हैं, इसलिए हमारी सारी प्रार्थनाएं झूठी हो जाती हैं। हम करते हैं प्रार्थना मंदिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में, गिरजे में–पर सब झूठा, दिखावा, औपचारिक, तोतों की तरह सिखाए गए शब्द। तुम्हारे हृदय से नहीं उठती है तुम्हारी प्रार्थना। तुम्हारे प्राणों की अभिव्यक्ति नहीं है उसमें। *और जिसमें तुम्हारे प्राण समाहित न हों वह प्रार्थना परमात्मा तक नहीं पहुंचेगी–नहीं कभी पहुंची है, नहीं कभी पहुंच सकती है। जिस प्रार्थना में तुम्हारे प्राण ढल जाते हैं, उसे पंख मिल जाते हैं।*

ओशो

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