बुधवार, 10 मई 2017

= ३४ =

卐 सत्यराम सा 卐
सो उपज किस काम की, जे जण जण करै कलेश ।
साखी सुन समझै साधु की, ज्यों रसना रस शेष ॥ 
दादू पद जोड़ै साखी कहै, विषय न छाड़ै जीव ।
पानी घालि बिलोइये तो, क्यों करि निकसै घीव ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

भगवान बुद्ध श्रावस्ती में ठहरे थे। नगरवासी उपासक सारिपुत्र और मौदगल्लायन के पास धर्म—श्रवण करके उनकी प्रशंसा कर रहे थे। अपूर्व था रस उनकी वाणी में अपूर्व था भगवान के उन दो शिष्यों का बोध: अपूर्व थी उनकी समाधि और उनके वचन लोगों को जगाते थे— सोयों को जगाते थे मुर्दो को जीवित करते थे। उनके पास बैठना अमृत में डुबकी लगाना था...
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एक भिक्षु जिसका नाम था लालूदाई यह सब खड़ा हुआ बड़े क्रोध से सुन रहा था। उसे बड़ा बुरा लग रहा था। वह तो अपने से ज्यादा बुद्धिमान किसी को मानता ही नहीं था। भगवान के चरणों में ऐसे तो झुकता था पर ऊपर ही ऊपर। भीतर तो वह भगवान को भी स्वयं से श्रेष्ठ नहीं मानता था। उसका अहंकार आrते प्रज्वलित अहंकार था। और मौका मिलने पर वह प्रकारांतर से परोक्ष रूप से भगवान की भी आलोचना —निंदा करने से चूकता नहीं था। कभी कहता आज भगवान ने ठीक नही कहा; कभी कहता भगवान को ऐसा नहीं कहना था; कभी कहता भगवान होकर ऐसा नहीं कहना चाहिए आदि—आदि।
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उस लालूदाई ने उपासकों को कहा क्या व्यर्थ की बकवास लगा रखी है, क्या रखा है सारिपुत्र और मौदगल्लायन में? कंकड़—पत्थरों को हीरे समझ बैठे हो? परख करनी है तो पारखियों से पूछो। जवाहरात पहचनवाने हैं तो जौहरियों से पूछो? मुझसे पूछो। और प्रशंसा ही करनी है तो मेरे धर्मोपदेश की करो। उसकी दबंग आवाज उसका जोर से ऐसा कहना नगरवासी तो बड़े सकते मे आ गए। सोचा उन्होंने कि हो न हो लालूदाई एक बड़ा धर्मोपदेशक है। उन्होंने लालूदाई से धर्मोपदेश की प्रार्थना की। लेकिन लालूदाई बार—बार टाल जाते। कहते, ठीक समय पर ठीक ऋतु में बोलूंगा। ज्ञानी हर कभी और हर किसी को उपदेश नहीं करता। प्रथम तो सुनने वाले में पात्रता चाहिए। अमृत हर पात्र में नहीं डाला जाता है। बात तो पते की थी। लोगों में प्रभाव बढ़ता गया। फिर तो वह यह भी कहने लगे कि ज्ञानी मौन रहता है। लिखा नहीं है शास्त्रों में कि जो बोलता है वह जानता कहां है? जो चुप रहता है वही जानता है। परमज्ञानी क्या बोलते हैं। नगरवासियों में तो धाक बढ़ती गयी। और बड़ी उत्सुकता भी पैदा हो गयी। वे और—और प्रार्थना करने लगे। इस बीच लालूदाई अपना व्याख्यान तैयार करने में लगे थे।
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व्याख्यान शब्द— शब्द कंठस्थ हो गया तो एक दिन धर्मासन पर आसीन हुए। पूरा गांव सुनने आया। तीन बार बोलने की चेष्टा की, पर अटक—अटक गए। बस संबोधन ही निकलता—उपासको। और वाणी अटक जाती। खांसते—खखारते, लेकिन कुछ न आता। पसीना —पसीना हो गए। चौथी बार चेष्टा की तो संबोधन भी न निकला। सब सूझ—बूझ खो गयी। याद किया कुछ याद न आया। हाथ—पैर कांपने लगे और घिग्घी बंध गयी तब तो गांव वाले असलियत पहचान गए लालूदाई मंच छोड़कर भागे। गांव वाले यह कहते हुए कि यह सारिपुत्र और मौदगल्लायन की प्रशंसा को सुन नहीं सकता और भगवान तक की आलोचना करने में पीछे नहीं रहता है और अपने से कुछ कह नहीं रहा है उसका पीछा किए। लालूदाई भागते में मल—मूत्र के एक गट्टे में गिर पड़े और गंदगी से लिपट गए।
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भगवान के पास खबर पहुंची। भगवान ने कहा भिक्षुओ अभी ही नहीं यह लालूदाई जन्मों—जन्मों से ऐसी ही गंदगी में गिरता रहा है भिक्षुओ अहंकार गंदगी है, मल है। भिक्षुओ अल्पज्ञान घातक है शब्द—ज्ञान घातक है शास्त्र—शान घातक है। इस लालूदाई ने थोड़े से शब्द सीख रखे हैं अनुभव के बिना शब्द मुक्ति नही लाते बंधन लाते हैं। इस लालूदाई ने थोड़ा सा धर्म सीख रखा है। लेकिन उसका भी ठीक—ठीक स्वाध्याय नहीं किया है। उसे भी पचाया नहीं है नहीं तो आज ऐसी दुर्गति न होती। भिक्षुओ इससे सीख लो आलोचना सरल और आत्मज्ञान कठिन है। विध्वंस सरल और सृजन कठिन है। और आत्मसृजन तो और भी कठिन है। अहंकार प्रतिस्पर्धा जगाता है प्रतिस्पर्धा से ईर्ष्या पैदा होती ईर्ष्या से द्वेष और शत्रुता निर्मित होती। और फिर अंतर्बोध जगे कैसे? दूसरे का विचार ही न करो समय थोड़ा है स्वयं को जगा लो बना लो अन्यथा मल—मूत्र के गड्डों मे बार—बार गिरोगे, भिक्षुओ तुम्हीं कहो बार—बार गर्भ में गिरना मल—मूत्र के गट्टे में गिरना नहीं तो और क्या है !

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