गुरुवार, 11 मई 2017

= मन का अंग =(१०/१२४-५)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०* 
मन ही सन्मुख नूर१ है, मन ही सन्मुख तेज ।
मन ही सन्मुख ज्योति है, मन ही सन्मुख सेज ॥१२४॥
शुद्ध मन के सामने ज्ञान - तेज रहता है=अज्ञान नहीं रहता । शुद्ध और ब्रह्म ज्ञान युक्त मन के सन्मुख निरँतर आत्म स्वरूप१ रहता है=वह सर्वत्र आत्मा को ही देखता है । ध्यान द्वारा निरुद्ध मन के सामने ब्रह्म ज्योति भासती रहती है । अद्वैत - निष्ठ मन के सन्मुख जीव और ब्रह्म की एकता रूप शय्या सदा रहती है=उसमें जीव ब्रह्म का भेद नहीं भासता ।
मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।
मन ही सौं मन मिल रह्या, दादू अनत न जाइ ॥१२५॥
इति मन का अँग समाप्त ॥१०॥ सा - ११३६॥
हमारा मन, मन के द्वारा साधन करने से ही स्थिर हुआ है । अत: हे साधक ! मन के द्वारा साधन करके ही मन को परब्रह्म में लगा । हमारा मन, मन के द्वारा साधन करने से ही निर्विषय होकर परब्रह्म में मिल रहा है, वह अन्य मायिक प्रपँच में नहीं जाता ।
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इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका मन का अँग समाप्त: ॥१०॥ 
(क्रमशः)

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