मंगलवार, 23 मई 2017

= ५८ =

卐 सत्यराम सा 卐
ज्यों जाणों त्यों राखियो, तुम सिर डाली राइ ।
दूजा को देखूं नहीं, दादू अनत न जाइ ॥ 
ज्यों तुम भावै त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।
दादू के दिल सिदक सौं, भावै दिन को रात ॥ 
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*ऐसे होने चाहिए प्रभु के सेवक*

एक बादशाह ने एक सेवक रखा। अपनी स्वाभाविक उदारता से उसने सेवक से प्रश्न किया- “तेरा नाम क्या है?”
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सेवक ने उत्तर दिया- “आप जिस नाम से बुलाएँ, वही मेरा नाम होगा मालिक।”
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बादशाह ने पूछा- “तुम क्या खाओगे?” 
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सेवक ने कहा- “जो आप खिलाएँ।” 
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बादशाह ने पूछा- “तुम्हें किस तरह के कपड़े पसंद हैं?”
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सेवक ने कहा- “जिन्हें आप पहनने को दें।”
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बादशाह ने इस बार पूछा- “तुम कौन सा कार्य करना चाहोगे?”
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सेवक बोला- “जो आप कहें।”
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इस बार बादशाह ने फिर पूछा- “तुम्हारी इच्छा क्या है?”
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सेवक ने कहा- “भला सेवक की भी कोई इच्छा होती है।” 
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बादशाह उस सेवक की हाजिरजबावी से इतना प्रसन्न हुआ कि तख्त से उठकर उसने कहा- “सचमुच तुम मेरे उस्ताद हो, क्योंकि तुमने मुझे सिखा दिया कि प्रभु के सेवक को कैसा होना चाहिए।” 
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ईश्वर की रज़ा में राजी रहने वाले ही उसके सच्चे सेवक, सच्चे भक्त हैं। शिकायतें करते रहने वाला मित्र, पुत्र, संबंधी कुछ भी हो सकता है पर भक्त या अनुगामी नहीं हो सकता है। जबकि भगवान को अपने अनुगामी भक्त से प्रिय कुछ नहीं। 

“पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। 
मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नहीं। 
भगतिहीन विरंचि किन होई। 
सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। 
मोहि प्रानप्रिय अस मम बानी॥” 

‘श्री रामचरित मानस’ से श्री राम के वचन कागभुसुँडि के प्रति..॥

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