#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*माया का अँग १२*
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माया के संग जे गये, ते बहुरि न आये ।
दादू माया डाकिनी, इन केते खाये ॥ २५ ॥
जो भी मायिक विषयों में आसक्त होकर व्यवहार में प्रवृत्त हुये हैं वे पुन: सत्संगादिक कल्याण मार्ग में नहीं आ सके हैं । यह माया डाकिनी के समान है, इसने कितने ही साधकों को कल्याण मार्ग से भ्रष्ट किया है ।
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दादू माया मोट विकार की, कोइ न सकई डार ।
बह बह मूये बापुरे, गये बहुत पचहार ॥ २६ ॥
यह माया विकारों की गठरी है । तुच्छ प्राणी तो इसके बोझ को ढो - ढो कर मर गये हैं । बहुत - से अज्ञानी लोग इसको पटकने के लिए प्रयत्न करके हार गये हैं किन्तु इसे अपने शिर से नीचे कोई भी नहीं डाल सका ।
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दादू रूप राग गुण अणसरे१, जहं माया तहं जाइ ।
विद्या अक्षर पँडिता, तहां रहे घर छाइ ॥ २७ ॥
जिनको सत्संग प्राप्त नहीं होता, वे जहां रूप - रागादि मायिक गुण होते हैं वहां ही जाते हैं । माया के बिना उनका काम नहीं चलता१ । नाना प्रकार की कला जानने वाले, अक्षर, विज्ञान तथा शब्दार्थों के जानने में निपुण पँडित तो जहां माया होती है, वहां ही घर बनाकर बस जाते हैं ।
(क्रमशः)
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