गुरुवार, 18 मई 2017

= ४९ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू जे तूं समझै तो कहूँ, सांचा एक अलेख ।
डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावै भेख ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

*चेहरों की चोरी - ओशो*
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हम चेहरे चुराकर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं, वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं, वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। और जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं; जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगाकर हम जीते हैं, वह भी हमारा चेहरा नहीं है। बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है, वह चेहरों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है।
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हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचौर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है।
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चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं है, वे अपने को माने चले जाते हैं, दिखाए चले जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थों में चोरी का अर्थ है - जो आप नहीं हैं, उसे दिखाने की कोशिश, उसका दावा। हम सब वही कर रहे हैं, सुबह से सांझ तक हम दावे किए जाते हैं।
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*मुस्कराहट आंसुओं को छिपाने का इंतजाम है :*
वह अमेरिकी अभिनेता ही अगर भूल गया हो कि मेरा ओरिजनल-फेस, मेरा अपना चेहरा क्या है, ऐसा नहीं है; हम भी भूल गए हैं। हम सब बहुत-से चेहरे तैयार रखते हैं। जब जैसी जरूरत होती है, वैसा चेहरा लगा लेते हैं। और जो हम नहीं हैं, वह दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी आदमी की मुस्कुराहट देखकर भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरी नहीं है कि भीतर आंसू न हों। अक्सर तो ऐसा होता है कि मुस्कराहट आंसुओं को छिपाने का इंतजाम ही होती है। 
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किसी आदमी को प्रसन्न देखकर ऐसा मान लेने की कोई जरूरत नहीं है कि उसके भीतर प्रसन्नता का झरना बह रहा है, अक्सर तो वह उदासी को दबा लेने की व्यवस्था होती है। किसी आदमी को सुखी देखकर ऐसा मान लेने का कोई कारण नहीं है कि वह सुखी है, अक्सर तो दुख को भुलाने का आयोजन होता है।
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आदमी जैसा भीतर है, वैसा बाहर दिखाई नहीं पड़ रहा है, यह आध्यात्मिक चोरी है। और जो आदमी इस चोरी में पड़ेगा, उसने वस्तुएं तो नहीं चुराईं, व्यक्तित्व चुरा लिए। और वस्तुओं की चोरी बहुत बड़ी चोरी नहीं है, व्यक्तित्वों की चोरी बहुत बड़ी चोरी है। 
ओशो

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