मंगलवार, 16 मई 2017

= पच्ञप्रभाव(ग्रन्थ ९/१७-८)

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= पच्ञप्रभाव(ग्रन्थ ९) =*
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*कोउक बा सौं मिलि चलै, कोउक राखै संक ।*
*सुन्दर यह सु कनिष्ट गति, अंक लगाई पंक ॥१७॥*
ऐसे सन्त कभी उन दोनों से(भक्ति और माया से) मिलकर चलते हैं, कभी इससे भी आगे बढ़कर भक्ति के प्रति तो मन में से दुराव रखते हैं, माया के प्रति नहीं । ऐसे सन्त कनिष्ट(अघम) सन्त कहलाते हैं । इन्होंने अपने और अपने कुल(सन्तपरम्परा) पर अपने आचरण से कलंक ही लगाया है ॥१७॥
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*= ४. अधमाधम सन्त वर्णन =*
*जो दासी सौं मिलि गयौ, अंग अंग लपटाइ ।*
*जीमैं लागौ हाथ, तिंहिं, जुवती निकट न जाइ१॥१८॥*
{१. छन्द१८ से२१ तक--अधमाधम नीचातिनीच संत वे हैं(यदि वे इस नाम के योग्य भी हों तो) जो माया ही से काम रखते हैं, केवल साधु का वेश मात्र उनके शरीर पर होता है, और भक्ति-ज्ञान से कुछ उनका सम्बन्ध नहीं । यों चार प्रकार के सन्त-साधु कहे । परन्तु ज्ञानी को इन चारों से पृथक् और ऊँचा बताया है ।}
(अब अधमाधम सन्त का वर्णन कर रहे हैं--)
जो दिन रात माया दासी से ही मिले रहते हैं, उसी के अंगों से लिपटते रहते हैं, भोजन भी उसी के हाथ का बनाया खाते हैं, और अपनी भक्ति पत्नी से सीधे मुँह बात भी नहीं करते, नजदीक जाना तो दूर रहा ॥१८॥
(क्रमशः)

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