सोमवार, 8 मई 2017

= पच्ञप्रभाव(ग्रन्थ ९/१-२)

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
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*= पच्ञप्रभाव(ग्रन्थ ९) =* 
[इस छोटे से ग्रन्थ में रुपकालन्कार के सहारे यह बात दिखायी गयी है कि मानो भक्ति ब्रह्म की पुत्री है और माया उस पुत्री की दासी है । जो पुरुष भक्ति से सम्बन्ध रखते हैं वे तो मानो जाति में है और जो दासी से सम्बन्ध रखते हैं वे जातिच्युत हैं । तीन गुणों के अनुसार  भक्ति तीन प्रकार की--उत्तम, माध्यम, कनिष्ठ होती है । चौथी अधमाधम गति जगत् व संसारी(मायालिप्त) पुरुषों की है । इन चारों से ऊपर मूर्धन्य स्थिति तुरियातीत ज्ञानी की है । इस प्रकार मनुष्य पर भक्त, भक्ति, माया, जगत् और ज्ञानी ये पच्ञ प्रभाव है । इनमें ज्ञानी सर्वोत्तम है; क्योंकि वह माया के गुणों से अलिप्त तथा असंग रहता है ।]
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*= मंगलाचरण = दोहा =*
*गुरु गोबिन्द प्रणाम करि, सन्तनि की बलि जात ।*
*सुन्दर सब कौ कान दे, सुनियहु अद्भुत बात ॥१॥* 
(महाराज कहते हैं--) मैं अपने गुरुदेव तथा इष्टदेव--दोनों को प्रणाम कर सभी सन्तों की बलिहारी जाता हूँ । उसके बाद मैं इस लघु ग्रन्थ के सहारे सभी जिज्ञासुओं को एक अद्भुत बात बताना चाहता हूँ, सब लोग ध्यान लगाकर सुनें ॥१॥
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*= भक्ति-स्वयंवरवर्णन =*
*भक्ति सुता परब्रह्म की, आई इहिं संसार ।*
*उत्तम बर ढूंढ़त फिरै, माया दासी लार ॥२॥*
१. जैसे 'अद्भुत उपदेश' ग्रन्थ में प्रपिता, पिता पुत्र का रूपक देकर विषयों पर जय का उपाय वर्णन किया गया वैसे ही यहां इस 'पंचप्रभाव' शब्द में पृथक् ढंग से रूपक बांधा है । भक्ति को परमात्मा की प्यारी पुत्री कहा है और माया को उस भक्ति की दासी कहा है । सन्तों को पसन्द कर भक्ति उनसे विवाह करती है तो दासी भी साथ हो जाती है । अब तो सन्त भक्ति ही को परमप्रिया रखते हैं और दासी माया को केवल दासी करके बरतते हैं वे सर्वोत्तम हैं । और जो दासी से सम्बन्ध करते हैं वे यथाकर्म माध्यम, कनिष्ठ और निकृष्ट हैं । अध्यात्म पक्ष में 'भक्ति' का 'दासी' से भेद परमात्मदृष्टि और संसारदृष्टि के भेद के रूप में जानना चाहिये ।(वह अद्भुत बात यह है--) भक्ति परब्रह्म परमात्मा की पुत्री है, वह कभी मनाविनोदार्थ इस संसार में आयी । उसने सन्तों के आश्रमों में जाकर जगह-जगह अपने लिये योग्य वर(जिससे विवाह किया जा सके) खोजना शुरू किया । उसके साथ उसकी माया नाम की दासी भी थी ॥२॥
(क्रमशः)

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