सोमवार, 8 मई 2017

= विन्दु (२)१०० =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु १०० =*
यद्यपि मेला का समय ज्येष्ठ शुक्ला पांचैं से आषाढ़ शुक्ला पांचैं तक नियत किया गया था किन्तु वह ज्येष्ठ की अमावस्या से आषाढ की अमावस्या तक पूर्ण रूप से रहा था । कहा भी है - 
“ठठ्यो म्होच्छो जेठी - पून्यूं, 
मावस से मावस लग दीन्यूं”
(जनगोपाल. वि. १६) 
अर्थात् अमावस्या से अमावस्या तक उक्त प्रकार ही सबको देते रहे थे । महोत्सव के दिनों में एक मास तक दादूवाणी के अखंड पाठ होते रहे थे । अनेक संत पाठ करने में लगे रहते थे । 
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प्रातः ७ से ९ बजे तक दादूधाम के महा पंडाल में दादूवाणी का प्रवचन होता था और मध्यान में उपनिषदों की कथा पंडाल में होती थी । दोनों ही समय श्रोताओं से पंडाल पूर्ण भर जाता था । भिन्न भिन्न समयों में अन्य आगत संत भी प्रवचन करते थे । कहीं अध्यात्म रामायण, कहीं श्री मद्भागवत् कहीं श्री मद्भगवद् गीता आदि के प्रवचन होते रहते थे । रात्रि के ११ बजे तक कहीं सत्संग प्रवचन, तो कहीं नाम संकीर्तन, कहीं संतों के पदों का कीर्तन होता ही रहता था । फिर तीन बजे से संतों के अपनी रूचि के अनुसार भजन गाने की आवाजें आने लगती थीं । 
प्रातः वैष्णव संतों के भगवान् की आरती के समय घंटाझालर आदि बाजों की ध्वनि से आकाश भर जाता था, वैसे ही सांयकाल बड़े ठाठ बाट से वैष्णव संत भगवान् की आरती करते थे । दादूधाम में भी आरतियाँ संतों द्वारा रचित बोली जाती थीं, आरती के पश्चात् फिर अष्टक आदिक अन्य स्त्रोतों का पाठ होता था । नाथ संत तथा उदासी संत और भी जिस जिस संप्रदाय के संत आये थे वे सभी अपनी अपनी पद्धति के अनुसार आरती करते थे । 
उक्त प्रकार आगत यात्रियों को मध्यरात्रि को छोड़ कर हर समय सत्संग प्राप्त होता था । यात्री जहां भी जाते थे वहां भगवान् सम्बन्धी चर्चा ही सुनते थे, इस से उनके हृदयों को अति प्रसन्नता प्राप्त होती थी । संतों के दर्शनों का और उपदेशों का इच्छानुसार लाभ उठाकर अपने ग्रामों को लौटते थे तब महोत्सव की महान् महिमा ग्राम वालों को सुनाते थे तब उस लाभ को प्राप्त करने के लिये वे सुननेवाले भी आते थे । 
महोत्सव में आये हुये सब संतों का मुख्य कार्य भगवद्जन, हरि संकीर्तन, हरि - कथा ही था, परस्पर वार्ता भी प्रभु संबन्धी ही करते थे । व्यर्थ बात कोई भी संत नहीं करता था । स्थान स्थान पर दादूजी महाराज के अद्भुत चरित्रों की चर्चा चलती रहती थी । संतों के दर्शन से ही आने वाले लोगों को शांति मिलती थी, उपदेश सुनकर तो वे परमानन्द में ही निमग्न हो जाते थे । 
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दादूजी महाराज के महोत्सव पर बाँटने के लिये अकबर, बीरबल, आमेर नरेश मानसिंह, करोली नरेश आदि राजाओं ने और अनेक सेठों ने नाना प्रकार के वस्त्र भेजे थे । अतः जिनको जैसे वस्त्र की आवश्यकता थी उनको वैसे ही वस्त्र महोत्सव के मध्य में भी दिये गये थे । 
पंडाल में निरंतर कीर्तन होता ही रहता था । दादूजी के आगे कीर्तन करने वाले थे वे ही मुख्यरूप से उस कीर्तन की व्यवस्था करते थे । उनके नाम जग्गाजी ने अपनी भक्तमाल में इस प्रकार दिये हैं - रामदास, हरिदास, धर्मदास, बाबा बूढ़ा, द्वितीय रामदास, राघव, गोपाल, नाथा, क्षेम, हरिदास द्वितीय, लक्ष्मीदास, विष्णुदास, कल्याण, तुलसी, नेता, श्याम, सुजानदास । जनगोपालजी ने वग्धा, नारायण, देवदास के नाम भी दिये हैं । ये लोग केवल कथा के समय ही कीर्तन को विश्राम देते थे, शेष समय में आठों पहर ही कीर्तन चलता था । मध्यरात्रि को छोड़कर तो कीर्तन करने वालों से भी पंडाल भरा ही रहता था । आगत संत भक्त सभी कीर्तन में भाग लेते थे । वाद्यों के साथ कीर्तन करने से अति महान् रंग वर्षता था । अनेकों को कीर्तन करते करते भाव समाधि हो जाती थी ।
कोठार पर गोविन्ददासजी आदि उदार संतों को रखा गया था । वे किसी की भी किसी वस्तु के लिये ना तो करना जानते ही नहीं थे । दिन भर दो दो ही करते रहते थे । वे जितना सामान लोगों को बाँटते थे, उससे भी अधिक और पड़ जाता था । सरसंग समाप्ति के समय प्रसाद प्रायः सूखे मेवों का ही दिया जता था । किसमिस, बादाम, काजू आदि मेवों की कथा के समय राशि लग जाती थी । वही सबको बाँट दिया जाता था । बाँटने में पक्षपात लेश मात्र भी नहीं किया जाता था । गरीब, अमीर सब को समान दिया जाता था । इस प्रकार यह महोत्सव रूप लीला एक मास तक परम शांति के साथ होती रही थी । कहा भी है - 
“मास-दिवस लग लीला कीन्ही ।” 
जनगोपाल ।
(क्रमशः)

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