मंगलवार, 2 मई 2017

= १८ =

卐 सत्यराम सा 卐
क्षीर नीर का संत जन, न्याव नबेरैं आइ ।
दादू साधु हंस बिन, भेल सभेले जाइ ॥ 
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साभार ~ Pooran Das
सुबह प्रभात सादर सत्यराम सा जी
दादू दिल दरियाव, हंस हरिजन तहं झूले ।
गगन मगन गलतान, राम रसना नहिं भूले ॥
उपजे महन्त मराल, मुक्ति मुक्ताहल भोगी ॥
रहत भजन बलशील, विषय लग होय न रोगी ॥
मन माला गुरु तिलक तत, रटन राम प्रतिपाल की।
राघव छाप छिपे नहीं, दादू दीन दयालु की।
अर्थात् - दादूजी का दिल दरियाव के समान था। जैसे दरिया के जल में हंस विचरते हैं वैसे ही दादूजी के ज्ञान रूप जल में संत जन झुमते है ओर ब्रहा् रूप आकाश में निमग्न हो कर मस्त रहते हैं। अपनी रसना से कभी भी राम का उच्चारण करना नहीं भूलते। दादूजी के संग से सार ग्राहक हंस के समान अनेक महान् संत उत्पन्न हुये है ओर जीवन मुक्ति को प्राप्त करके महा वाक्य रूप मोतियों के अर्थ ब्रहा्नन्द के भोक्ता हुये हैं । भजन के बल से सदाशील व्रत से युक्त रहे हैं । विषयों में लगकर रोगी नहीं हुये है। मन से ब्रहा् चिन्तन करना ही उन संतों की माला थी। गुरू उपदेश रूप तत्व में अडिग रहना ही तिलक था। निरन्तर विश्व रक्षक राम के नाम की रटन में ही लगे रहते थे। राघवदास जी कहते है, उन संतों के हदय पर लगी हुई दादू दीन दयालु के ज्ञान की छाप कही भी नहीं छिपती है। अर्थ की संगति ही अच्छी बैठती है।
सादर सत्यराम सा जी

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