शनिवार, 3 जून 2017

= ७९ =

卐 सत्यराम सा 卐
बाट विरही की सोधि करि, पंथ प्रेम का लेहु ।
लै के मारग जाइये, दूसर पांव न देहु ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

*(((((((((( मन की वेदना ))))))))))*
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जब भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी लोक पर अपनी लीला समाप्त करके अपने धाम को चले गए तब भगवान की विरह-वेदना में उनकी सोलह हजार रानियाँ दुखी रहने लगीं. उन्होंने अपने प्रियतम प्रभु की चतुर्थ पटरानी यमुना जी को आनंदित देखा. वह विरह वेदना से शोकाकुल नहीं थी. इससे रानियों को आश्चर्य हुआ. उन्होंने सरल भाव से यमुना जी से कारण पूछ ही लिया.
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रानियों ने कहा – बहिन कालिंदी ! हमारी तरह तुम भी श्री कृष्ण की पत्नी हो. हम तो विरहाग्नि में जली जा रही हैं किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं है. तुम प्रसन्न हो, इसका क्या कारण है ? यमुना जी ने कहा- बहनों, अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण हमारे प्रिय भगवान श्री कृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं- श्री राधा जी ! मै दासी की भांति राधा जी की सेवा करती रहती हूं. उनकी सेवा का ही प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता.
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भगवान श्री कृष्ण की जितनी भी रानियां हैं सब की सब श्री राधा जी के ही अंश का विस्तार है. राधा कृष्ण एक हैं. उनका परस्पर संयोग है और उन दोनों का प्रेम ही वंशी है. तुम सब का भी श्री कृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है क्योंकि यह संभव नहीं है. भगवान जिसे अपनाते हैं उसे कहां छोड़ते हैं ? किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में नहीं जानती हो इसलिए इतनी व्याकुल हो रही हो.
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यमुना जी आगे बोलीं- जब अक्रूर जी श्री कृष्ण को मथुरा ले गए थे तब गोपियों को भी ऐसी ही विरह-वेदना महसूस हुई थी. वह भी वास्तविक विरह नहीं था. प्रभु से विरह कहां ! वह तो विरह का आभास मात्र था. ये बातों गोपियां तो जानती नहीं थीं. जब प्रभु के मित्र उद्धव जी व्रज में आए और उन्होंने समझाया तब गोपियां इस बात को समझीं. यदि तुम्हे भी उद्धव जी का सत्संग प्राप्त हो जाए तो तुम भी श्री कृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी.
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रानियाँ बोली- सखी ! तुम्हारा जीवन धन्य है क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पडता. अब ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे उद्धव जी से शीघ्र भेंट हो जाए. तब यमुना जी बोलीं- जब भगवान अपने परमधाम को पधारे तब उद्धव जी भगवान की आज्ञा से बद्रिकाश्रम चले गए परन्तु व्रजभूमि को भी भगवान ने उद्धव जी को दे दिया था.
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किन्तु वह फलभूमि यहां से भगवान के अन्तःर्धान होने के साथ ही लोगों की सांसारिक दृष्टि से परे जा चुकी है. इस लिए उद्धव जी यहां प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देते. रानियों ने पूछा- ऐसा है तो फिर कैसे मिलेंगे हमें उद्धव जी ? यमुना जी ने कहा- एक स्थान है जहां उद्धव जी का दर्शन हो सकता है. गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीला सहचरी गोपियों की विहार स्थली है वहां की लता अंकुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धव जी वहाँ निवास करते हैं.
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लताओं के रूप में उनके वास करने का यही उद्देश्य है कि भगवान की प्रियतमा गोपियों की चरण रज उन पर पड़ती रहे. उद्धव जी के सम्बन्ध में एक बात निश्चित यह भी है कि उन्हें भगवान ने अपना उत्सव स्वरुप प्रदान किया है. भगवान का उत्सव उद्धव जी का अंग है. इसलिए तुम सब व्रज में कुसुम सरोवर के पास ठहरो. भगवतभक्तों की मंडली एकत्र करके वाद्ययंत्र बजाकर भगवान की लीलाओं के भजन-कीर्तन करते उत्सव आरंभ करो.
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इस प्रकार जब तुम्हारे उत्सव की चर्चा होने लगेगी तो उस उत्सव का विस्तार होगा तब निश्चित ही उद्धव जी का दर्शन तुम्हें मिलेगा. तब रानियां व्रजनाभ और परीक्षित जी को लेकर व्रज में आईं. यमुना जी के बताए अनुसार गोवर्धन के निकट कुसुम सरोवर पर उत्सव श्री कृष्ण कीर्तन आरंभ कर दिया. वहां रहने वाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गए. उनकी दृष्टि कहीं और न जाती थी. तभी सबके देखते देखते वहां फैले हुए लताओं के समूह से प्रकट होकर उद्धव जी सबके सामने आये.
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शरीर श्यामवर्ण, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था. गले में वनमाला धारण किये हुए और मुख से बारबार गोपीवल्लभ श्री कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान कर रहे थे. उद्धव जी के आगमन से उस कीर्तन की शोभा बहुत बढ़ गई. उद्धव जी ने भगवान की रानियों को प्रभु की विरह वेदना से निकलने का मार्ग बताया. उन्होंने व्रजनाभ और परीक्षित जी को दिव्य वृंदावन और श्री कृष्ण के उस स्थान से प्रेम के बारे बताया. तो रानियों के मन की वेदना मिटी और भजन में जुट गईं.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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