卐 सत्यराम सा 卐
*सुख के तांई झूठा बोलै,*
*बांधे बंधन कबहूँ न खोलै ॥*
*दादू सुख दुख संग न जाई,*
*प्रेम प्रीति पीव सौं ल्यौ लाई ॥*
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क्या है जो सतत रह सकता है? सुख और दुःख, दोनों के ठीक मध्य में है संतुलन; सम्यकत्व। वहां न ये अति है, और न वह अति है। जैसे तराजू में मध्य में जो कांटा है, संतुलन के क्षण बीच में थिर-वही मनुष्य सतत हो सकता है। एक तरफ तराजू झुका, थोड़ी देर में मनुष्य थक जाएगा; दूसरी तरफ वजन डालना पड़ेगा। जैसे अर्थी ले जाते समय मनुष्य कन्धा बदलता रहता है। सुख-दुःख मनुष्य के कंधे हैं और स्वयं को कर्ता समझ लेना अर्थी है जिसे मनुष्य बदलता रहता है। कभी जुड़ जाता है सुख के साथ, और कभी दुःख के साथ जुड़ जाता है। द्रष्टा बने, साक्षी बने मनुष्य ! मध्य में ठहर जाये; तभी सतत रह सकेगा। जिसे साधना न पड़े वही सतत रह सकता है। जो बगैर साधे सदैव मनुष्य के भीतर है, वही सतत रह सकता है। जिसे मनुष्य कभी छोड़ नहीं सकता, वही सतत रह सकता है।
धर्म है : स्वभाव की खोज, क्योंकि वही शाश्वत है; मनुष्य उससे कभी नहीं ऊबेगा, क्योंकि वह ही है मनुष्य का होना। उससे अलग होने का कोई उपाय नहीं है। उसका अतिक्रमण करने का कोई उपाय नहीं है। जिससे भी मनुष्य अलग हो सकता है, उससे ऊबेगा अवश्य; क्योंकि वह मनुष्य का स्वभाव नहीं है। मन जब मन्त्र के प्रयोग से समाप्त हो जाता है, तब मनुष्य के भीतर उस सतत झरने का प्रारम्भ होता है। इस झरने के प्रारम्भ के साथ ही मनुष्य सुख-दुःख आदि वाह्य वृत्तियों से विमुक्त हो जाता है।
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सुख-दुःख आदि वाह्य वृत्तियों से मुक्त होते ही मनुष्य कैवल्य उपलब्ध कर लेता है।अब उसे कुछ नहीं चाहिए, अब समस्त चाह समाप्त हो गई। अब न तो वह दुःख से बचने का प्रयास करता है, और न ही सुख की चाह करता है। जो बाहर है उससे उसका सम्बन्ध टूट गया, अब वह स्वयं में थिर है, और सतत आनंदित है। इसलिए चाह का कोई प्रश्न अब नहीं है।
**'उनसे विमुक्त वह कैवल्य उपलब्ध कर लेता है।'**
**'उस कैवल्य-अवस्था में आरूढ़ हुए योगी का अभिलाषा-शून्यता के कारण जन्म-मरण का पूर्णरूपेण क्षय हो जाता है।'**
फिर न कोई जन्म है, न कोई मरण है।
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जन्म-मरण सुख-खोज की यात्रा है। चेतना चाहती है सुख, सुख मिल सकता है शरीर से; इसीलिये शरीर धारण करना पड़ता है। जैसा सुख चेतना चाहती है, उसी के अनुकूल शरीर धारण कर लेती है। इस सुख की आकांक्षा मृत्यु के क्षण भी बनी रहती है, ये आकांक्षा ही फिर -२ जन्म लेने का कारण बन जाती है।
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भटकाव तब तक रहेगा,जब तक आत्मा वासनाग्रस्त रहती है; जब तक चेतना सुख-दुःख के साथ अपने को एक समझे हुए है, तब तक पूरा प्रयास रहता है कि दुःख न हो। और-२ सुख मिले। और-२ सुख के सपने नए जन्मों में ले जाते हैं। मृत्यु से सभी मुक्त होना चाहते हैं, जन्म से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। ये ही कठिनाई है। दुःख से सभी मुक्त होना चाहते हैं, सुख से कोई मुक्त नहीं होना चाहता। जिस क्षण मनुष्य सुख से मुक्त होना चाहता है, उसी क्षण वो धार्मिक हुआ।
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