#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*टगा टगी जीवन मरण, ब्रह्म बराबरि होइ ।*
*परगट खेलै पीव सौं, दादू बिरला कोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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समूह२ स्वल्प३ शक्ति४ हिं मुक्त, पाया साधु खोज१ ।
जैसे रज्जब वारि मध्य, शशि सौं सुरति सरोज५ ॥२१॥
हमें संतों के व्यवहार का पता१ लग गया है, वे जैसे चन्द्रमुखी कमल५ भारी जल राशि२ में वा अति थोड़े३ जल में हो, किंतु उसकी वृत्ति चन्द्रमा में ही रहती है, वैसे ही संत माया४ के समूह में रहो वा अति थोड़ी माया में रहो उसकी वृत्ति तो निरंतर ब्रह्म में ही रहती है, अत: वह माया से मुक्त ही रहता है ।
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रज्जब रचै१ न ऋद्धि सौं, विदु२ जन विरचै३ नाँहिं ।
महापुरुष माया मुकत, बैठे हरि पद माँहिं ॥२२॥
ज्ञानी२ जन माया से प्रेम१ नहीं करते और विरक्त३ भी नहीं होते वे महापुरुष तो हरि के वास्तविक स्वरूप में स्थित रहने से माया से मुक्त ही रहते हैं ।
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ऊणति१ ऊंधी सूधी संपति, बपु२ बाती दरसांहिं ।
रज्जब प्रीति मिली पावक झली३, ब्रह्म व्योम४ दिशि जाँहिं ॥२३॥
दीपक की बत्ती ऊंधी अर्थात नीचे लटकती हो वा सीधी आकाश की ओर हो अग्नि लगते३ ही उसकी ज्योती आकाश४ की ओर उंची१ ही जायेगी, वैसे ही संत का शरीर२ माया की ओर हो वा साधन में लगा हो, किन्तु उनकी आत्मा ब्रह्म के साथ मिली है, अत: वृत्ति प्रीतिपूर्वक ब्रह्म की ओर ऊंची ही जाती है ।
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अंकुर अग्नि सारंग१ अहर२, मुर३ मुख दिशि आकाश ।
यूं रज्जब साधु सुरति, शक्ति४ तजे शिव५ पास ॥२४॥
बीज का अंकुर, अग्नि की ज्वाला और जल के गड्ढे२ में पड़ा चातक१ पक्षी इन तीनों३ का मुख आकाश की ओर रहता है, वैसे ही संत की वृत्ति माया४ को त्याग कर ब्रह्म५ के पास ही रहती है ।
(क्रमशः)
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