卐 सत्यराम सा 卐
*खरी कसौटी पीव की, कोई बिरला पहुँचनहार ।*
*जे पहुँचे ते ऊबरे, ताइ किये तत सार ॥*
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साभार ~ Sonali Sharma
......दुनिया में दूसरों का पागलपन देख लेना बहुत आसान है। और केवल वही आदमी पागल नहीं है जो अपना पागलपन देखने में समर्थ हो जाता है; इसे मैं फिर दोहराता हूँ, केवल वही आदमी पागल नहीं है जो अपना पागलपन देखने में समर्थ हो जाता है, बाकि शेष लोग भी पागल हैं जो दूसरों का पागलपन देखने में बड़े कुशल हैं।
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गैर पागल आदमी की, स्वस्थ आदमी की पहली पहचान वो है कि वो सबसे पहले अपने पागलपनों को पहचानता है, अपनी भूलों को, दोषों को देखता, पहचानता है। जो आदमी अपनी भूलों को, अपने दोषों को, अपनी विक्षिप्ताओं को पहचानने में समर्थ हो जाता है, उसने पहला कदम उठा लिया मुक्ति की ओर, वो उनसे कल मुक्त भी हो सकेगा।
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आत्म निरीक्षण जितना गहरा होता है उतनी भीतर की चेतना विकसित होने लगती है, क्यों ? क्योंकि आत्मनिरीक्षण बहुत तप की बात है, खुद की भूलों को देखना बहुत तपश्चर्या की बात है। क्योंकि खुद की भूलों को देखने के लिए स्वयं से ही थोड़े दूर खड़े होने की साधना करनी पड़ती है। तभी तो हम देख सकते हैं, आब्जर्व, निरीक्षण कर सकते हैं।
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जैसे हम दूसरे लोगो को देखते है, ठीक वैसे ही खुद को उसी भाँति देखने की जरूरत है। जब कोई व्यक्ति अपने भीतर स्वयं को इस भाँति दूर से खड़े होकर देखने लगता है तो वो जो देखने वाली शक्ति है उसके निरंतर अभ्यास से विकसित होती है। उसी का नाम विवेक है। वो जो साक्षी होने की शक्ति है, विटनेस होने की शक्ति है, वो जो आब्जर्वेशन की शक्ति है निरीक्षण की शक्ति है, वही तो विवेक है।
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जब कोई अपने से दूर खड़े होकर देखने लगता है कि कहाँ२ मुझमें पागलपन, कहाँ२ मुझ में दोष, कहाँ२ मेरा जीवन भ्रांतियों से भरा पड़ा है, कहाँ२ मेरे जीवन में पाखण्ड, कहाँ२ मेरे जीवन में असत्य, कहाँ२ मेरे जीवन में हिंसा, कहाँ२ मेरे जीवन में अहंकार है ।
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जब कोई निरन्तर इनके प्रति जगता है, देखता है, समझता है तो उसके भीतर विवेक जगना शुरू होता है। बड़े आश्चर्य की बात तो ये है जैसे२ विवेक जागता है, वैसे२ दोष अपने आप क्षीण होने लगते हैं, क्योंकि जहाँ विवेक का प्रकाश, वहां दोषों का अंधकार बहुत दिन नहीं टिक सकता !!!
ओशो""""""
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