शुक्रवार, 18 मई 2018

= ९६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*जाइ तहाँ का संजम कीजै, विकट पंथ गिरिधारा ।*
*दादू रे तन अपना नांहीं, तो कैसे भया संसारा ॥* 
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साभार ~ Main Toh Vrindavan Ko Jaau Sakhi,mere Naina Lage Bihari Se'' 

आज की "ब्रज रस धारा"

भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए, पुत्रों की मातायें ही सोलह हजार से अधिक थीं, इसलिए उनके पुत्र-पौत्रो की संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी. छप्पन करोड़ का भगवान का वंश हो गया. वे रूप, बल, आदि गुणों में, अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे. उन्हें पढाने के लिए तीन हजार शिक्षक लगे थे. रानियाँ देखती कि भगवान हमारे महल से कभी बाहर नहीं जाते, सदा हमारे पास बने रहते हैं. 
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इससे वे यही समझती कि श्रीकृष्ण को मैं ही सबसे प्यारी हूँ. परन्तु वे अपने पति भगवान श्रीकृष्ण का तत्व उनकी महिमा नहीं समझती थी. वे सुंदरियाँ अपने आत्मानंद में एकरस स्थित भगवान श्रीकृष्ण के कमल-कलि के समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, प्रेमभरी मुस्कान, से स्वयं ही मोहित रहती थी. अब नित्य-निरंतर उनके प्रेम और आनंद की अभिवृद्धि होती रहती थी. वे प्रेम भरी मुस्कराहट, मधुर चितवन, आदि से भगवान की सेवा करती रहती थी. 
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उनमे से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिए सैकड़ों दासियाँ रहती फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते, तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लाती श्रेष्ठ आसन पर बैठाती, उत्तम सामग्रियों से उनकी पूजा करती, चरणकमल पखारती, पान लगाकर खिलाती, पाँव दबाकर थकावट दूर करती, पंखा झलती, इत्र-फुलेल, चन्दन, आदि लगाती फूलों के हार पहनाती, केश संवारती, सुलाती, स्नान कराती, और अनेक के भोजन कराकर अपने हाथों भगवान की सेवा करती. रुक्मिणी के दस पुत्र थे जिनमे ‘प्रधुम्न’ सबसे बड़े थे. कामदेव का जन्म ही प्रधुम्न के नाम से भगवान कृष्ण के पुत्र के रूप में हुआ. प्रधुम्न के पुत्र ‘अनिरुद्ध’ हुए. जिनका विवाह बाणासुर की बेटी उषा से हुआ. जाम्बवती के बड़े बेटे का नाम 'साम्ब' था.
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एक दिन साम्ब, प्रधुम्न, चारुभानु आदि राजकुमार घूमने के लिए उपवन में गए. वहाँ बहुत देर तक खेल-खेलते हुए उन्हें प्यास लगी. वे इधर-उधर जल की खोज करने लगे. वे एक कुएँ के पास गए उसमे जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा. वह जीव पर्वत के समान आकर का एक गिरगिट था उसे देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही.
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उन्होंने यह वृत्तान्त श्रीकृष्ण के पास जाकर निवेदन किया. जगत के जीवनदाता कमल नयन भगवान श्रीकृष्ण उस कुएँ पर आये.और अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया. भगवान श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवता के रूप में परिणित हो गया. अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था. भगवान ने उससे पूछा- महाभाग तुम कौन हो? तुम्हे किस कर्म के फलस्वरुप इस योनी में आना पड़ा था? आप अपना परिचय दो.
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राजा ने कहा - ‘प्रभु ! मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ. जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी तब उसमे मेरा नाम अवश्य ही आपने सुना होगा. ‘भगवन ! पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं, और वर्षा में जितनी जलधाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थी. वे सभी गौएँ दुधारू, नौजवान, सीधी, सुन्दर, और कपिला थी. उन्हें मैंने न्याय के धन से प्राप्त किया था. उनके सींगों में सोना मढ़ा दिया गया था और खुर चाँदी के थे. उन्हें वस्त्र, हार, से सजा दिया था. सबके बछड़े थे. और भगवन् मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण कुमारों को जो सद्गुणी, शील, संपन्न, वेदपाठी होते, उन्हें गौओं का दान करता. एक दिन किसी अयाचक(दान न लेने वाले) तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर कर मेरी गौओं में आ मिली. 
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मुझे इस बात का बिलकुल पता न चला एवं मैंने अनजाने में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया. जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामि ने कहा - ‘यह गौ मेरी है’ दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा - ‘यह तो मेरी है’ क्योंकि राजा नृग ने मुझे दी है और वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिए मेरे पास आये.
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एक ने कहा - यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है. और दूसरे ने कहा - यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है. ‘भगवन् उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया. मैंने धर्मसंकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय-विनय की. और कहा कि मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा. मुझसे अनजाने में यह अपराध बन गया है. पर दोनों ब्राह्मण नहीं माने और चले गए. इसके बाद आयु समाप्त होने पर यमराज ने मुझसे पूछा - ‘राजन ! तुम पहले अपने पाप का फल भोगना चाहते हो या पुण्य का? तुम्हारे दान और धर्म के फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होने वाला है जिसकी कोई सीमा ही नहीं है.
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तब मैंने यमराज से कहा - ‘देव ! पहले मैं अपने पाप का फल भोगना चाहता हूँ. और उसी क्षण यमराज ने कहा - तुम गिर जाओ. उनके ऐसा कहते ही, मैं वहाँ से गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ. तब से आज तक मैं इसी रूप में पड़ा हूँ आज आपकी कृपा से इस देह से मुक्ति मिली है. राजा नृग ने इस प्रकार कहकर भगवान की परिक्रमा की. और फिर आज्ञा लेकार सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमान पर सवार हो गए. राजा नृग के चले जाने पर भगवान श्री कृष्ण ने अपने कुटुंब के लोगो को शिक्षा देने के लिए कहा - जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं वे भी ब्राह्मणों का थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते. मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है.
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परन्तु ब्राह्मणों का धन ही ‘परम विष’ है उसको पचा लेने के लिए पृथ्वी में कोई औषधि, कोई उपाय, नहीं है. हलाहल विष केवल खाने वाले का ही प्राण लेता है परन्तु ब्राह्मण के धन रूप अरणी से जो आग पैदा होती है वह सारे कुल को समूल जला डालती है. ब्राह्मण का धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिए बिना भोग जाये तब तो वह भोगने वाले उसके लड़के, और पौत्र इन तीन पीढियों को ही चौपट करता है. 
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परन्तु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाये तब तो पूर्वपुरुषों की दस पीढियाँ और आगे आने की भी दस पीढियाँ नष्ट हो जाती हैं. जो ब्राह्मण का धन हड़पता है समझना चाहिये कि वह जान-बूझकर नर्क में जाने का रास्ता साफ कर रहे हैं. उनके रोने पर, उनके आँसू की बूंदों से जितने धरती के धूलिकण भीगते हैं उतने वर्षों तक ब्राह्मण के स्वत्व छीनने वाले को कुम्भीपाक नरक में दुख भोगना पड़ता है. वे साठ हजार वर्षों तक विष्ठा के कीड़े होते हैं. इसलिए कभी भूले से भी ब्राह्मण के धन की इच्छा भी करते हैं, उसे छीनना तो अलग रहा. वे इस जन्म में अल्पायु, शत्रुओं से पराजित, और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं. ब्राह्मण अपराध करे, मार ही क्यों न बैठे. बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे. उसे नमस्कार ही करो. इस प्रकार भगवान अपने ही पुत्रों, पौत्रों को समय-समय पर शिक्षा देते रहते थे.
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सार -
भगवान भी ब्राह्मण को अपना ईष्ट देव मानते हैं ब्राह्मण शब्द में ही हम ब्राह्मण 'देव' लगाते हैं. नारदजी को भगवान वैकुण्ठ बार-बार बुलाते हैं ताकि उनकी चरण धूलि से वैकुण्ठ पवित्र हो जाये.
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श्याम सुन्दर गोस्वामी
सेवाधिकारी श्री राधा रानी मन्दिर बरसाना

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