#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू गुण निर्गुण मन मिल रह्या, क्यों बेगर ह्वै जाहि ।*
*जहँ मन नांही सो नहीं, जहँ मन चेतन सो आहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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मिलती मिलहि न संत जन, पाई परसै नाँहिं ।
रज्जब रचै१ न राशि पर, सो विरक्त मन माँहिं ॥१७॥
संत जन मिलती हुई सम्पति से मन द्वारा नहीं मिलते और प्राप्त का भी मन से स्पर्श नहीं करते अर्थात उसमें राग नहीं रखते । जो धन राशि पर अनुरक्त१ नहीं होता वही मन में विरक्त है ।
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नर नारी रोटी दुपड़, ज्ञान घीव घट माँहिं ।
रज्जब सीझै एठे, लिपै छिपै सो नाँहिं ॥१८॥
घी लग जाने से दो पड़त की रोटी तवे पर एक साथ सिद्ध होती है, तो भी एक पड़त के साथ दूसरा पड़त नहीं मिलता, वैसे ही अन्त:करण में ज्ञान में आत्म-ज्ञान हो जाने पर एक घर में दो नर-नारी रहते हैं, एक दूसरे से लिपायमान नहीं होते और न अन्य से छिपते ।
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शक्ति१ सलिल माँहिं रहै, विरक्त बीज समान ।
जन रज्जब माँहीं मुकत, एक मेक अरु आन२ ॥१९॥
बिजली बादल के जल में एकमेक रहती हुई भी उससे अलग के समान मुक्त रहती है, वैसे ही विरक्त संत माया१ में एकमेक रहते हुये भी उससे अलग२ के समान मुक्त ही रहते हैं ।
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अधिके ओछे अंभ मध्य, अंबुज के आनन्द ।
रज्जब रवि शशि सन्मुखी, विघ्न नहीं व्रत बन्द ॥२०॥
अधिक वा न्यून जल में कमल के आनन्द ही रहता है, कारण - उसके सूर्य मुखी हो तो सूर्य के सन्मुख और चन्द्र मुखी हो तो चन्द्रमा के सन्मुख देखने का व्रत हो, इस व्रत बन्धन से ही उसे कोई विघ्न नहीं सताता, वैसे ही संत का निरंतर ब्रह्माकार वृत्ति रखने का व्रत है, इसी से अधिक वा थोड़ी माया में भी उसके आनन्द ही रहता है कोई भी विघ्न नहीं आता ।
(क्रमशः)
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