शुक्रवार, 22 जून 2018

= १५६ =

卐 सत्यराम सा 卐
*बोले दादू दासजी, साचै शब्द रसाल ।* 
*तिनकी उपमा को कहै, मानो उगले लाल ॥* 
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*या वाणी पढ़ि प्रेम ह्वे, या पढ़ि प्रीति अपार ।* 
*या पढ़ि निश्चय नाम की, या पढ़ि प्राण अधार ॥* 
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साभार ~ Mudit Mishra
*दादू जे पहुँचे ते कह गये, तिन की एकै बात।*
*सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात॥*
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*जे पहुँचे ते पूछिए, तिनकी एकै बात।*
*सब साधों का एक मत, ये बिच के बारह बाट॥*
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*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक।*
*दादू मारग माँहिले, तिनकी बात अनेक॥* 
*{परम सन्त दादू साहेब, साँच को अंग १६४-१६६}* 
सभी पूर्ण संतों का मत तो एक ही है चाहे वह पूर्व के हों, मध्य पूर्व के या फिर पश्चिम के, चाहे वह किसी काल में क्यों न आये हों। किसी ने इस को पति-पत्नी का रिश्ता कह कर समझाया और किसी ने इस रिश्ते को पिता-पुत्र के। इन रिश्तों को क्या वस्तु बाँधती है? वह है प्रेम ! जिस का न कोई रंग है न रूप, वह अनुभूति है अब अगर बहुत सारे एक मत नहीं हो सके जिन के बारे में आप बात करते हैं न तो वह पूर्ण संत होंगे और न ही वह उस पूर्ण तक पहुँच पाये। तो आप ही बतायें वह एक मत कैसे हो सकते हैं।
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*"जीवित मरिऐ भव जल तरिये"*
यह है उपदेश उन सभी पूर्ण संतों का। जिज्ञासु को रोज़ मरने की विधि आनी चाहिये उस पूर्ण को पाने के लिये जोकि कोई विरला संत महात्मा ही बता सकता है अगर कोई रोज़ मर के जीये वह तो महसूस कर सकता है कि असीम परमात्मा कैसा है !!
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यह सच्च है कि उस असीम का कोई रंग रूप नहीं है और न ही वह मरन जन्म के चक्र में आता है इसी को प्रभु का निराकार और निर्गुण रूप कहा जाता है। वह प्रभु अपने भक्तों के लिये साकार, सर्गुण रूप धारण करता है। जिसको संतों ने रामनाम, शबद, आकाशवाणी या वाणी, हरि कीर्तन, दिव्य धुनी या धुन, अकथ कथा कहा है। मेरे गुरू जी ने इसे "Unwritten Law and unspoken language" कहा है। इसमें ध्वनि और प्रकाश के गुण अाऐ तो यह उस परम पिता परमात्मा का सर्गुण और साकार रूप हुआ जिस के ज़रिये ही हम निर्गुण निराकार तक पँहुच सकते हैं। 
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इसीलिये गुरू नानक ने कहा था; 
*"शबद गुरू सुरत धुन चेला॥"* 
कि असली गुरू शबद या रामनाम है और आत्मा असली शिष्य है।
*"अंतर जोत निरंतर वाणी सचे साहिब सिओं लिव लाइ॥"* 
वह ज्योति अंतर में है जिस से प्रकाश निकलता है और उस में से मीठी और सुरीली ध्वनि भी निकलती है। इस ज्योति को अंतर में प्रगट करने से ही उस पिता से मिलाप होगा। 
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गोस्वामी जी ने रामचरितमानस में कहा है; 
*"पँच शबद धुनि मंगल गाना"।* 
यह इशारा ही काफ़ी है जिज्ञासू के लिये। भौतिक गुरू होना ज़रूरी है जो हमें यह सब गूढ़ रहस्या समझा सके और शबद गुरू से मिला सके जो कि कोई संत प्यारा ही सकता है। 
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गुरू साहिब ने ही कहा है;
*"जिस वख्खर को लैण तू आइआ ओ रामनाम संतन घर पाइआ॥"*
ऐसे ही रामचरितमानस में सैंकड़ों उधारण मिलते हैं संतों की महिमा के। जब उस असीम में हीं मिल गये तो फिर समझने समझाने की ज़रूरत ही नहीं है। इस भौतिक संसार में उस जैसा कुछ है ही नहीं तो संत क्या कह कर समझायें? किस के साथ उस का तुलना करें जो साधारण जन मानस की समझ में आ जाये। तो फिर इसका यह मतलब निकालना उचित नहीं है कि किसी पूर्ण संत महात्मा को उसका पता नहीं है। यह तो "गूँगे का गुड़" है भाई, जो चखेगा वही जानेगा !!
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अगर हम अपनी सोच का दायरा बढ़ा कर अध्ययन करें तो कुछ कुछ समझ में आ जाता है। और अगर तेरा मेरा, दुई द्वैत, पठन पाठन, जप तप, पूजा पाठ, वाद विवाद या फिर अपनी बुद्धी को ही प्रधानता देते रहे तो इस मार्ग पर चलना असंम्भव है। फिर बस हम कुछ अच्छे कर्म करके आगे की प्रालब्ध त्यार करने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे है। और उसका परिणाम पूनर् जन्म। 'सी' श्रेणी के क़ैदी न बन के 'ऐ' श्रेणी के क़ैदी बन जायेंगे यानी पशु पक्षी या दरिद्र इंसान न बन के सेठ शाहूकार या कोई बड़े राजनेता बन सकते हैं लेकिन जीवन मुक्त कभी नहीं *साभार :- श्री राकेश सावल जी*

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