सोमवार, 25 जून 2018

= १६१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू नैन न देखे नैन को, अन्तर भी कुछ नाहिं ।* 
*सतगुरु दर्पण कर दिया, अरस परस मिलि माहिं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

*ईश्वरत्व क्या है ???* 
जब मन न था, आप नहीं थे, जगत नहीं था तब जो तत्त्व था, अस्तित्त्व था उसे ईश्वर कहो, परमात्मा कहो, चाहे ब्रह्म कहो। उसी में से हमारी, आपकी व पूरे विश्व की उत्पत्ति हुई है। उस परमात्मा में अपना मन लीन होने देने से बोध होता है कि हम ही वह निर्मल अस्तित्त्व हैं और पूरा विश्व हमारा मनोव्यवपार मात्र, कल्पना मात्र है। जैसे एक महासागर है। वह स्थिर है, शांत है, गंभीर है। उसमें एक तरंग उठी, दूसरी उठी, तीसरी उठी। ऐसी अनंत-अनंत तरंगे उठीं और लीन हो गई। फिर से उठीं और लीन हो गईं। महासागर का कुछ बना नहीं, कुछ बिगड़ा नहीं। वह ज्यों का त्यों है। 
उसी प्रकार मैं, आप, वह-सब एक ही चैतन्यरूपी महासागर की तरंगें हैं। कोई तरंग बड़ी है कोई छोटी है। लेकिन हैं सब तरंगे। सब तरंगे जलरूप ही हैं, जल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। तरंगों को बोध हो जाय कि ‘मैं जलरूप हूँ….’ तो यही उसकी मुक्ति है। वैसे ही चैतन्यसमुद्र में तरंगों के समान बने हुए जीव को बोध हो जाय कि ‘मैं चैतन्य ही हूँ…’ तो यही उसकी मुक्ति है। तरंग है जीवभाव, समुद्र है ईश्वरमात्र और जल है ब्रह्मभाव। जल ही तरंग व समुद्र बना है। तरंग छोटी हो चाहे बड़ी, वह जल ही है। उसे जल बनना नहीं है। 
ऐसे ही जीव कैसा भी हो वह ब्रह्मरूप ही है। ब्रह्म बनने का अभ्यास नहीं करना है, केवल जानना है अपने ब्रह्मत्व को। यदि ऐसा है तो ब्रह्माभ्यास, आत्मचिन्तन व तमाम साधनाएँ करने को क्यों कहा जाता है? ठीक से समझ लेना जरूरी है कि ये सब साधनाएँ ब्रह्म बनने के लिए नहीं हैं बल्कि जीवपने का जो उल्टा अभ्यास हो गया है उसे मिटाने के लिए हैं। उल्टा अभ्यास मिट गया, जीव मिट गया तो हम ब्रह्म ही हैं। जीव ईश्वर नहीं हो सकता। जीव को ईश्वर बनाने का प्रयास बेकार है। लेकिन जीव ब्रह्म तो है ही। तरंग सागर नहीं हो सकती लेकिन तरंग जलरूप तो है ही। 
जीव को अपने ब्रह्मत्व का स्मरण नहीं है उसका कारण है अविद्या, अज्ञान। अविद्या में आया हुआ चैतन्य जीव है और माया में आया हुआ चैतन्य ईश्वर है। जीव अविद्या के आधीन हैं लेकिन ईश्वर माया के आधीन नहीं है। ईश्वर माया के स्वामी हैं। जीव में से अविद्या को हटा दो, ईश्वर में से माया को हटा दो दोनों एकरूप ही हैं, ब्रह्म ही हैं। हमें कोई पूछे कि, ‘जगत कितना बड़ा है?’ तो कहें- ‘साढ़े पाँच फीट का।’ इस साढ़े पाँच फीट के देह को भूल जाओ तो सारा जगत गायब। 
प्रगाढ़ निद्रा के समय मन सो जाता है, अहंभाव नहीं रहता, देह का भान नहीं रहता तो जगत की प्रतीति भी नहीं होती। हमारे लिये जगत का अभाव हो जाता है। उस समय कोई दुःख भी नहीं रहता। जाग्रतावस्था में ही देह से अहंभाव निकाल दें तो शोक व दुःख कहाँ रहेंगे? देहभाव दूर होते ही ताजगी, आनंद, उत्साह का अनुभव होगा जो आत्मा का स्वभाव है। देहभाव हटाने के लिए ‘मैं आत्मा हूँ’ यह भाव लाना है। अभ्यास से शांति एवं आनंद की स्थिति सहज बन जायेगी।

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