बुधवार, 27 जून 2018

= १६५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*वारपार को ना लहै, कीमत लेखा नांहि ।*
*दादू एकै नूर है, तेज पुंज सब मांहि ॥* 
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*छोटा सा प्रश्न पूछा है कि सत्य क्या है ?*

बहुत पीछे अतीत में एक बार ऐसा हुआ। उपनिषदों के समय में एक ऋषि से किसी ने जाकर पूछा, 'सत्य क्या है?' उस ऋषि ने बहुत गौर से उस आदमी को देखा। उसने दुबारा पूछा कि 'सत्य क्या है?' उसने तीसरी बार पूछा कि 'सत्य क्या है?' उस ऋषि ने कहा, 'मैं बार-बार कहता हूं, लेकिन तुम समझते नहीं।' वह व्यक्ति बोला, 'आप कैसी बात कर रहे हैं ! मैंने तीन बार पूछा, आप तीनों ही बार चुप थे। और आप कहते हैं, मैं बार-बार कहता हूं !' उसने कहा, 'काश, तुम मेरे चुप होने को देख पाते, तो तुम समझते कि सत्य क्या है। काश, तुम मेरे साइलेंस को, मेरे मौन को देख पाते, तो समझते कि सत्य क्या है।'
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वही रास्ता है उसे कहने का। जिन्होंने जाना है, वे चुप हो जाते हैं। और जब सत्य की बात की जाती है, तो वे मौन हो जाते हैं। अगर आप भी मौन हो सकें, तो उसे जान सकते हैं। अगर आप मौन न हों, तो उसे नहीं जान सकते हैं। सत्य को आप जान सकते हैं, लेकिन जना नहीं सकते। तो इसलिए मैं नहीं कहूंगा कि सत्य क्या है, क्योंकि नहीं कहा जा सकता है।
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उसे शब्दों में बताने का कोई उपाय नहीं है। आज तक मनुष्य की वाणी से नहीं कहा जा सका है। और ऐसा नहीं है कि भविष्य में कहा जा सकेगा। ऐसा नहीं है कि पीछे मनुष्य के पास भाषा इतनी समृद्ध न थी कि वह नहीं कह सका और आगे कह सकेगा। कभी नहीं कहा जा सकेगा।
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उसका कारण है। मनुष्य की जो भाषा विकसित हुई है, वह उसके लोक-व्यवहार के लिए हुई है। भाषा का जन्म लोक-व्यवहार के लिए हुआ है, भाषा का जन्म सत्य को प्रकट करने के लिए नहीं हुआ। और जिन लोगों ने भाषा बनायी है, उनमें से शायद ही कोई सत्य को जानता है। इसलिए सत्य के लिए कोई शब्द भी नहीं है। और जिन लोगों ने सत्य को पाया है, उन्होंने भाषा से नहीं पाया, मौन होकर पाया है। यानि उन्हें जब सत्य उपलब्ध हुआ है, तब वे परिपूर्ण मौन थे और वहां कोई शब्द नहीं था।
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इसलिए बड़ी कठिनाई है, जब वे लौटकर कहना शुरू करते हैं, तो एक स्थान खाली रह जाता है जो कि सत्य का है। उसके लिए कोई शब्द देना संभव नहीं होता। या जब वे शब्द देते हैं, तब शब्द अधूरे पड़ जाते हैं और छोटे पड़ जाते हैं। और उन्हीं शब्दों पर झगड़े शुरू हो जाते हैं। उन्हीं शब्दों पर! क्योंकि सब शब्द अधूरे रहते हैं, वे सत्य को प्रकट नहीं कर पाते। वे इशारों की तरह हैं। जैसे कोई चांद को अंगुली दिखाए और हम उसकी अंगुली को पकड़ लें कि यही चांद है, तो दिक्कत शुरू हो जाएगी। अंगुली चांद नहीं है, अंगुली केवल इशारा है। और जो इशारे को पकड़ लेगा, वह दिक्कत में पड़ जाएगा।
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इशारे को छोड़ना पड़ता है, ताकि वह दिखायी पड़ सके, जिसकी तरफ इशारा है। शब्दों को छोड़ देना होता है, तब सत्य का थोड़ा-सा अनुभव होता है। जो शब्दों को पकड़ लेता है, वह सत्य के अनुभव से वंचित हो जाता है।
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इसलिए कोई रास्ता नहीं है कि मैं आपको कहूं कि सत्य क्या है। और अगर कोई कहता हो, तो वह आत्मवंचना में है। अगर कोई कहता हो, तो वह खुद धोखे में है और दूसरों को धोखे में डाल रहा है। सत्य को कहने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन हां, सत्य को कैसे पाया जा सकता है, इसे कहने का उपाय है। मेथड तो बताया जा सकता है सत्य को पाने का, उसकी पद्धति तो बतायी जा सकती है, लेकिन सत्य क्या है, यह नहीं बताया जा सकता।

|| ओशो ||

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