#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*शब्दों मांहिं राम-रस, साधों भर दीया ।*
*आदि अंत सब संत मिलि, यों दादू पीया ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*सद्गति सेझे का अंग ३८*
इस अंग में मुक्ति देने वाले ज्ञान के उमगने का स्थान सन्त हैं यह कह रहे हैं ~
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शरीर सरोवर बुद्धि जल, शब्द मीन ह्वै माँहिं ।
रज्जब पहले थे नहीं, पीछे मेले१ नाँहिं ॥१॥
संतों का शरीर तलाब है, उसमें श्रेष्ठ बुद्धि रूप जल है, जल में मच्छियां उत्पन्न होती हैं, वैसे ही बुद्धि में ज्ञान पूर्ण शब्द उत्पन्न होते हैं, अज्ञान अवस्था में ऐसे शब्द बुद्धि में नहीं थे और पीछे ब्रह्म में लय होने पर भी नहीं मिलेंगे१, कारण-शब्द उत्पत्ति के साधन नहीं रहेंगे । इससे सिद्ध होता है कि मुक्ति प्रदाता ज्ञान के उद्गम स्थान संत ही हैं ।
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बहुत सर सरिता भरै, बादल बारंबार ।
तैसे रज्जब साधु गति१, वेद२ भेद३ तिनलार ॥२॥
बादल बारंबार बहुत से तालाब और नदियों को जल से भरते हैं, वैसे ही संतों की चेष्टा१ है, वे भी ज्ञान२ के रहस्य३ को साधकों के हृदय में बारंबार भरते रहते हैं । अत: वेद के रहस्य उनके पीछे रहते हैं अर्थात उनके द्वारा ही खुलते हैं ।
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जल अनन्त आकाश में, पृथ्वी परि परिमाण१ ।
साधु वेद यों अंतरा२, जन रज्जब पहचान ॥३॥
आकाश में अनन्त जल रहता है किन्तु पृथ्वी पर सीमित१ ही रहता है, वैसे ही साधु और वेद में जो भेद२ है उसे पहचानो, अर्थात साधु में अनन्त ज्ञान है और वेद में जो लिखित है वही है ।
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साधु सेझे कूप जल, निगम१ कलश हैं चार ।
जन रज्जब ता नीर की, कुल२ पण्डित पणिहार ॥४॥
संत सेझे के(निचे से जल उमगने वाले) कूप के समान हैं, जैसे सेझे के कूप में जल उगमता है, उसको कलशों में भरा जाता है फिर पनिहारियाँ सबके घरों में पहुचाती हैं, वैसे ही संतों के हृदय में ज्ञान उगमता है, वह चारों वेदों१ में भरा जाता है, उसके द्वारा सब२ पंडितजन सबको देते हैं ।
(क्रमशः)
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