सोमवार, 18 जून 2018

= विचार का अंग ३६(३३-३६) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन फकीर ऐसैं, भया, सतगुरु के प्रसाद ।*
*जहाँ का था लागा तहाँ, छूटे वाद विवाद ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
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चंचल बाणी श्रवण सुन, मुनिजन पकङैं मौन । 
साधु छाँह सुमेरु की, रज्जब डिगे न पौन ॥३३॥ 
संत सुमेरु की छाया के समान हैं, जैसे सुमेरु की छाया वायु से नहीं हिलती, वैसे ही संतजन चंचल करने वाली बाणी सुनकर मौन धारण करते हैं, चंचल नहीं होते । 
जाण पणे का जीव१ है, जो छूटे बकबाद । 
समझ समावे शून्य२ में, सु गुरु ज्ञान परमाद ॥३४॥ 
यदि वाद विवाद छूट जाय तो समझों कि इसे जानपने(ज्ञातत्त्व) का सार१ प्राप्त हुआ है, ऐसा व्यक्ति श्रेष्ठ गुरु के ज्ञान-प्रसाद को विचार द्वारा समझकर ब्रह्म२ में समा जाता है । 
यथा नगारा चोट सुन, हिम गिरि करे उपाधि । 
जन रज्जब यूं जानियँहिं, तहां मौन व्रत साधि ॥३५॥ 
नगारे पर डंका की चोट पड़ने पर उसकी मंगल रूप ध्वनि से भी हिमालय पर्वत बर्फ के शिखर गिराना रूप उपाधि करने लगता है, वैसे ही यदि कोई हितकर शब्द बोलने पर भी उपाधि करने लगे तो वहां यही जानना चाहिये कि यहां मौन व्रत धारण करना ही अच्छा है । 
जहां बोलैं वीर रु दैत्य दहाडैं१, खेल खवीसौं मांड्या । 
जन रज्जब तिनमें जब बादै, तब बालक वपु छाड्या ॥३६॥ 
जहां हाथ में शस्त्र लिये वीर मारन के लिये हाँक दे रहे हों, दैत्य गर्जना१ कर रहे हों, खवीस(भूत, प्रेत, दुष्ट, कृपण) अपना खेल रच रहे हों, उक्त स्थानों में जब विवाद करता है तब वह अज्ञानी उसका फल अपने शरीर का त्याग रूप परिणाम ही देखता है ।
(क्रमशः)

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