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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय (जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय (चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= १-जकड़ी राग गौड़ी =*
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(४)
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जब लग होहु संयानिय तबलग रहब संभारि ।
केहूं तन जिनि चितवहु ऊंचिय दृष्टि पसारि ॥२॥
जब तक तूँ लोकव्यवहार में समझदार नहीं होती, तब तक तूँ बुद्धि विवेक के साथ व्यवहार कर । किसी अन्य पुरुष की ओर वासनामयी दृष्टि से न देख ॥२॥
यह जोबन पिय कारन नीकैं राषि जुगाइ ।
आपनौ घर जिनि छोडहु पर घर आगि लगाइ ॥३॥
तेरा यह जीवन तेरे स्वामी को समर्पित हो चुका है, अतः तूँ सावधानीपूर्वक स्वयं पर नियन्त्रण रख । दूसरे के घर को अग्नि लगाकर(नष्ट कर) अब अपना घर भी न त्याग ॥३॥
यहि बिधि तन मन मारै दुइ कुल तारै सोइ ।
सुन्दर अति सुख बिलसई कंत पियारी होइ ॥४॥
जो पतिव्रता नारी इस रीति से अपने तन एवं मन--दोनों पर नियन्त्रण रखती है उस के दोनों ही कुल(मातृ गृह एवं श्वसुर गृह) पवित्र रहते हैं । अतः वह दोनों ही स्थानों पर अतिशय सुख भोगती है । ऐसी स्थिति में वह पति को तो प्रिय होगी ही ॥४॥
(क्रमशः)
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