सोमवार, 23 जुलाई 2018

= शूरातन का अँग(२४ - ६१/६३) =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*"श्री दादू अनुभव वाणी"* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*शूरातन का अँग २४*
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मन मनसा मारे नहीं, काया मारण जाँहिँ ।
दादू बाँबी मारिये, सर्प मरे क्यों माँहिं ॥६१॥
लोग मन तथा साँसारिक वासनाओं को तो नहीं मारते किन्तु शरीर को नष्ट करने के लिये काशी - करवत लेने, हिमालय में गलाने आदि के लिये जाते हैं । यह उनका उद्योग सर्प को न मार कर बांबी को दँडे मारने के समान है । बांबी के मारने से सर्प नहीं करता, वैसे ही कठौर तपादि से शरीर को क्षीण करने से मन क्षीण नहीं होता और शरीर को मारने से मन नहीं मरता ।
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*शूरातन* 
दादू पाखर१ पहर कर, सब को झूझण जाइ । 
अँग उघाड़े शूरवां, चोट मुंहैं मुंह खाइ ॥६२॥ 
६३ - ६९ में शौर्य का परिचय दे रहे हैं, जैसे हाथी लोहे की झूल१ पहन कर संग्राम में जाता है, वैसे ही सकाम भक्ति रूप कवच१ वो भेषरूप कवच पहन कर प्रतिमा - पूजा, जप, तपादि बाह्य साधन - संग्राम तो सभी करते हैं किन्तु उक्त कवच को उतार कर निष्काम भाव युक्त और बिना भेष के ही जो कामादि से युद्ध करता हुआ उनके वेग रूप आघात को अपने विचार रूप मुख पर झेल कर उन्हें कमजोर करके नष्ट करता है, वही वीर है । 
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जब झूझे तब जाणिये, काछ१ खड़े क्या होइ । 
चोट मुंहैं मुंह खाइगा, दादू शूरा सोइ ॥६३॥ 
साधक - शूर का भेष१ बना कर खड़े रहने से ही क्या शूर मान लिया जाता है, नहीं । जब कामादि से युद्ध करते हुये उनके वेग रूप आघात को अपने विचार रूप मुख ही मुख पर खायगा = विचार द्वारा नष्ट कर देगा, वही शूर है ।
(क्रमशः)

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