सोमवार, 23 जुलाई 2018

= गर्व गंजन का अंग ४३(५/८) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।*
*दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*गर्व गंजन का अंग ४३*
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विष हरै निर्विष करै, अति गति मोल बिकाहिं । 
बड़े पहाड़ की धातु सब, मोर धातु सम नाँहिं ॥५॥ 
मोर की पंखों से निकला हुआ ताम्र, विष दूर करता है, अधिक मूल्य में बिकता है अत: बड़े पहाड़ की सभी धातुएँ मोर पंख के ताम्र के समान नहीं हैं । 
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गांडर जड़हु सुगंध मिठाई, तो बावन१ बल छाङि । 
लघु को दीरघ दीन दत, पद यूं पदई बाढि ॥६॥ 
जब गांडर की जड़ में भी सुगंध और मिठाई है तब हे बावन चन्दन१! तू अपने अभिमान का बल छोड़ दे । भगवान् ने लघुओं को भी महान् योग्यता रूप दान दिया है और उनकी पदवी विविध पद वालों से भी बढ़ा दी है । 
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लघु तिणु के मध्य नाज किया, दीरघ द्रुमहुं सु और । 
गर्व गंजन गोविन्द जी, काल दवन किस ठौर ॥७॥
छोटे तृणों में अन्न उत्पन्न किया है, बड़े वृक्षों में अन्न से अन्य फल उत्पन्न किये हैं जिनके बिना काम चल सकता है, गर्व को नष्ट करने वाले गोविन्द ने ऐसा करके वृक्षों के गर्व को दूर किया है और देखो, काल का दमन करने वाले भगवान् भी किस स्थान पर रहते है ? अर्थात गर्व रहित हृदय में ही विशेष रूप से रहते हैं । 
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इन्द्र धनुष रँग काढ़ न गर्वी, जस काढे किरकांट१ । 
रज्जब राम रूप दिय सरभर२, बधी कौन की आंट३ ॥८॥ 
इन्द्र धनुष के रंग निकालने का गर्व न हो सके, इसलिये ईश्वर ने वैसा ही रंग निकालने की योग्यता गिरगट१ को दी है, उन दोनों के रंग-रूप समान२ हैं, अत: किसका अभिमान३ बढ़ा ? अर्थात किसी का भी नहीं ।
(क्रमशः)

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