卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जे कुछ खुसी खुदाइ की, होवेगा सोई ।*
*पच पच कोई जनि मरै, सुन लीज्यो लोई ॥३२॥*
टीका - हे जिज्ञासु लोगों ! जो कुछ परमेश्वर की आज्ञा है, वैसा ही होवेगा । परन्तु तुम बाह्य साधनों का त्याग करके, अनन्य हरि की भक्ति में लय लगाकर सदा लयलीन रहो ॥३२॥
कवित्त ~
जगत में आइ कर बिसार्यो है जगतपति,
जगत कियो है सोई जगत भरत है ।
तेरे चिंता निस दिन और ही परी है आइ,
उद्यम अनेक भाँति - भाँति के करत है ॥
इत उत जाइके कमाइ करि ल्याऊँ कछू,
नेक न अज्ञानी नर धीरज धरत है ।
सुन्दर कहत एक प्रभु के बेसास बिन,
बाद के वृथा ही सठ पच के मरत है ॥
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एक बुढिया अति प्रीति सौं, जाइ धर्यो परसाद ।
बदल दीयो जन तर्क करी, लुटी बंदगी बाद ॥
दृष्टान्त - एक वृद्ध माई परमेश्वर की भक्त थी । श्रद्धा प्रीति से जो कुछ घर में प्रसाद बनाया था, भगवान् के भोग लगाकर एक महात्मा के पास ले जाकर रखा और बोली, "महाराज ! आप इसको पाओ । यह भगवान् का प्रसाद है ।" महात्मा ने उस प्रसाद का त्याग कर दिया । बोला - "हम ऐसा नहीं पाते हैं, उठा ले जा तेरा प्रसाद ।" जो कुछ भाव - भक्ति परमेश्वर का स्मरण किया था, वह सब महात्मा का लुट गया । परमेश्वर में मन नहीं लगता है । मन इधर - उधर दौड़ने लगा । परमेश्वर से तब महात्मा ने विनती की, "परमेश्वर ! मन आपमें नहीं लगता, क्या कारण हो गया ?" परमेश्वर ने कहा - तुमने मेरे भक्त के प्रसाद का निरादार किया है, इससे आप की बन्दगी लुट गई । वह प्रसाद मेरी प्रेरणा से लाई थी । उसका प्रसाद पाओ, तब तुम्हारा मन स्थिर होगा ।
*(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
चित्र सौजन्य ~ मुक्ता अरोड़ा स्वरूप निश्चय
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