शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

= २२ =

卐 सत्यराम सा 卐
*मूवाँ पीछे पद पहुँचावैं, मूवाँ पीछे तारैं ।*
*मूवाँ पीछे सद्गति होवै, दादू जीवित मारैं ॥* 
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साभार ~ Dhaval Parmar

मैं छोटा विद्यार्थी था जब, तो स्कूल जाते वक्त बीच में एक मंदिर था, और उसके जो पुजारी थे वे बड़े प्रसिद्ध थे, बंशीवाले उनका नाम था। और उनकी बड़ी ख्याति थी कि वे बड़े सज्जन, बड़े करुणावान, बड़े दानी, बड़े प्रेमी, बड़े भक्त ! और जब प्रार्थना करते थे वे कृष्ण की तो आंखों से आंसू बह रहे ! मगर मुझे देखते ही से वे एकदम डंडा उठा लेते थे। कि बस, बोलना मत, कहना मत ! क्योंकि मैं जब भी वे मिलते, कहीं भी मुझे मिल जाते, *मैं कहता: रामनाम सत्य है।* 
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इससे वे बहुत नाराज होते थे। कि तू है कैसा ! तुझे कुछ पता है ! *कि जब कोई मर जाता है तब कहते हैं रामनाम सत्य है। मैं अभी जिंदा हूं !* वे पूजा कर रहे होते, बंशीवाले की पुकार लगा रहे होते कि मैं उनके मंदिर में पहुंच जाता। मुझे देख कर ही बंशीवाले को भूल जाते ! कि तू बाहर निकल ! देख, बोलना मत ! वह बात मुंह से ही मत निकालना ! वह बात ही गलत है! तुझे कुछ समझ ही नहीं है ! जब देखो तब वही-वही कह देता है ! मैं पूछता: क्या? वह कहते कि मैं नहीं कह सकता क्या।
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जब उनको मैं बहुत सता चुका तो एक दिन आ गए वे, अपना डंडा लिए मेरे पीछे-पीछे मेरे घर पहुंच गए। मेरे पिता जी से बोले कि इसको रोको। यह गलत बातें कहता है। और मेरी पूजा में विघ्न-बाधा डालता है। यह राक्षस है ! पता नहीं इसको कैसे पता चल जाता है कि मैं पूजा कर रहा हूं, बस वहीं पहुंच जाता है! अब मैं पूजा करूं कि इसकी फिकर करूं? और सब गड़बड़ हो जाता है। ऐसी बातें कह देता है !
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तो मैंने उनसे कहा कि आप कम से कम बातें तो बताइए। कि तू चुप रह, तू बीच में मत बोल ! तो मेरे पिताजी ने भी कहा कि यह बात तो तर्कसंगत है, कि आखिर उसने कहा क्या यह तो आप कहिए। कोई गाली दी, कोई बुरे वचन आपसे बोला, कोई आपका अपमान किया? अरे, कहा, कुछ भी गाली नहीं दी, कोई बुरा वचन नहीं कहा, मगर ऐसी बात कहता है जो बुरी से बुरी है।
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तो मैंने कहा कि आप कम से कम उस बात को कहो। चलो, मेरे पिताजी के कान में कह दो - अगर मेरे सामने कहने में संकोच लगता है। और जब मैं तुमसे कहता हूं और संकोच नहीं खाता, तो तुम क्या संकोच खा रहे हो? कह दो, जी ! वे मुझे डांटें कि तू चुप रह ! दो बड़े बुजुर्ग बातें कर रहे हैं तो तुझे बीच में बोलने की जरूरत नहीं। मैंने कहा, बात मेरे संबंध में हो रही है ! और निर्णय मेरे संबंध में होना है। इतना मुझे हक होना चाहिए। और अगर तुम न कह सकते होओ तो मैं कह दूं। कि नहीं, बिलकुल मुंह से मत बोलना ! वह बात कहने की है ही नहीं !
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जब वे चले गए तब मेरे पिताजी ने मुझसे पूछा कि बात क्या है आखिर? ये आदमी तो सीधे-सादे हैं, भोले-भाले हैं, और इनकी तो गांव में बड़ी प्रतिष्ठा है; और ये एकदम भन्नाते हैं, तुझे देखते ही से एकदम इनको रोष चढ़ जाता है, डंडा हाथ में पकड़ लेते हैं, कंपने लगते हैं; बात क्या है? *मैंने कहा, कुछ बात नहीं। जो आमतौर से लोग कहते हैं - रामनाम सत्य है। वही मैं इनसे कहता हूं।* 
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*मेरा कहना यह है कि मर कर किसी से कहने में क्या सार है? अब वह बेचारा सुन ही नहीं रहा - वह तो कभी के मर चुके, वह तो ठंडे हो चुके, अब उनसे तुम कह रहे हो: रामनाम सत्य है ! अरे, जिंदा को याद दिलाओ ! मैं इनको याद दिला रहा हूं, बूढ़े हो गए, अब याद आ जाए तो अच्छा है।* वह बोले कि यह बात तो ठीक नहीं कहना ! यह जिंदा आदमी से कहनी ही नहीं चाहिए। मैंने कहा, यह भी अजीब हिसाब है, मुर्दे से कहो कि रामनाम सत्य है और जिंदे से कहो मत ! 
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सोचने लगे वे। *उन्होंने कहा कि बात तेरी ठीक है, तेरी बातें अकसर ठीक होती हैं, मगर उनमें कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर होती है। तू भी कहां से खोज लाता है ! यह मुझे भी हो गई जिंदगी सुनते - अरथियां निकलती हैं, रामनाम सत्य मैंने भी कई का किया है, मगर मुझे कभी यह खयाल न आया कि यह जिंदा आदमी को कहना चाहिए।*
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मैंने कहा, जिंदा ही को कहना चाहिए। अब जैसे ये बंशीवाले हैं ! अगर मेरा बस चले तो इनकी अरथी बांध कर, इनकी खटिया खड़ी करके और बाजार में घुमाऊं और रामनाम सत्य का ढिंढोरा पिटवाऊं। तो ये बेचारे सुनें, इनको कुछ अकल आए। नहीं तो बांसुरी वाले की बस पूजा ही करते रहे ! और क्या यह पूजा सच हो सकती है जिसमें रामनाम सत्य है...इसमें कोई खराब बात तो है ही नहीं। राम का नाम सत्य है, इसमें कौन-सी खराब बात है? इसमें क्या इनको अड़चन है? *मगर मौत की घबड़ाहट !*
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*लोग मरने के बाद सुनना चाहते हैं रामनाम सत्य है, पहले मत कहना। पहले तो उनको उलझे रहने दो उनके मन के जालों में। संन्यास को टाले जाते हैं, धर्म को टाले जाते हैं, सत्य को टाले जाते हैं, राम को टाले जाते हैं - सरकाए जाते हैं: आगे, और आगे, और आगे। सरकाते-सरकाते ही कब्र में गिर जाते हैं। एक पैर कब्र में पड़ जाता है तब भी अभी आशा संसार में ही लगी रहती है; अभी मन दौड़ता ही रहता है।*

*ओशो~लगन महुरत झूठ सब*

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