शनिवार, 21 जुलाई 2018

= १२ =


卐 सत्यराम सा 卐
*सतगुरु संगति नीपजै, साहिब सींचनहार ।*
*प्राण वृक्ष पीवै सदा, दादू फलै अपार ॥* 
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*"सत्संग" शब्द समझने जैसा है*
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यह भी भारत का अपना शब्द है। सत्संग का अर्थ होता है, गुरु के साथ होना–सिर्फ साथ होना, गुरु के पास होना। एक समीपता, आत्मीयता! बस, इतना काफी है। जैसे वैज्ञानिक कहते हैं, कैटलिटिक एजेंट होता है, जिसकी मौजूदगी में घटनाएं घट जाती हैं बिना उसके सहयोग के। गुरु कुछ करता नहीं।
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अगर तुम उसकी मौजूदगी में मौजूद हो जाओ, अगर तुम उसके आभा-मंडल में स्नान कर जाओ, अगर तुम उसके पास आ जाओ, और उसकी तरंगों में लीन हो जाओ, वह जिस जगत में बह रहा है, अगर क्षण भर को तुम अपनी नौका उसके जगत में छोड़ दो और उसके साथ बह जाओ; अगर तुम थोड़ी देर उसके तीर्थ में स्नान कर लो, तो सब हो जाता है। लेकिन गुरु के पास होना बड़ी कला है।
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बड़ा धैर्य चाहिए, बड़ा संतोष चाहिए। जल्दबाजी काम न आएगी। मांग से तुम गुरु से दूर हो जाओगे। बिना मांगे उसके पास रहो। तुम यह भी मत कहो, कि कब घटेगी घटना? तुम सिर्फ प्रतीक्षा करो और प्रेम करो और प्रार्थना करो। सत्संग का अर्थ है: मांगो मत, सिर्फ मौजूद रहो।
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जब भी तुम पूरे होओगे, जब भी घड़ी पकेगी, जब भी मौसम आएगा–और हर चीज का मौसम है; और हर बात की घड़ी है; और हर चीज के पकने का समय है– जब भी पकोगे, गुरु की नजर तुम पर पड़ेगी। वह सदा मौजूद है, तुम भर मौजूद हो जाओ। जब तुम्हारी दोनों की मौजूदगियां मिल जाएंगी; जैसे एक बुझा हुआ दीया जले हुए दीये के करीब–और करीब, और करीब आता जाए और एक क्षण में लपट छलांग ले ले; जलता हुआ दीया झपटे और बुझे हुए दीये में ज्योति पकड़ जाए।
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मजा यह है कि जलते हुए दीये का कुछ खोता नहीं, उसकी ज्योति में कोई कमी नहीं आती। हजार दीये जल जाएं उससे, तो भी उसकी ज्योति “उसकी ज्योति’ बनी रहती है। कोई फर्क नहीं पड़ता। बुझे हुए दीयों को बहुत मिल जाता है और जले हुए दीये का कुछ भी नहीं खोता। सत्संग की कला जले हुए दीये के करीब सरकने की कला है।
*- ओशो*
*कहे कबीर दीवाना, प्रवचन-11*

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