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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २. राग माली गौडी =*
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(५)
*जग तै जन न्यारा रे ।*
*करि ब्रह्म बिचारा । ज्यौं सूर उज्यारा रे ॥(टेक)*
रे ब्रह्मविचारक जिज्ञासु ! यदि तुम ब्रह्म विषयक चिन्तन करना आरम्भ कर रहे हो तो तुम सर्वप्रथम यह समझ लो कि यह(ब्रह्म) जगत् से पृथक् है जैसे सूर्य से उसका प्रकाश पृथक् होता है ॥टेक॥
*जल अंबुज जैसैं रे, निधि सींप सु तैसैं रे ।*
*मणि अहि मुख ऐसैं रे ॥१॥*
(इस पार्थक्य = भिन्नता के कुछ और उदाहरण भी सुन लो -) जैसे - जल से कमल भिन्न होता है, मोती सीप से भिन्न होता है, या सर्प के मुख से मणि भिन्न होती है ॥१॥
*ज्यौं दर्पन माहीं रे, दीसै परछांही रे, कछु परसै नहीं रे ॥२॥*
जैसे दर्पण में छाया दीखती है, परन्तु उसका उससे सपर्श नहीं हो पाता । यही स्थिति यहाँ भी समझनी चाहिये ॥२॥
*ज्यौं घृत हि समीपै रे, सब अंग प्रदीपै रे, रसना नहिं छीपै रे ॥३॥*
जैसे घृत दूध के समीप ही रहता है, समीप ही क्या, उसके कण कण में समाया रहता है, परन्तु उसका रसना से सपर्श नहीं होता ॥३॥
*ज्यौं है आकसा रे, कछु लिपै न तासा रे, यौं सुंदरदासा रे ॥४॥*
जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु न वह किसी से लिप्त है, न उससे कोई लिप्त है । महाराज श्री सुन्दरदासजी कहते हैं - ब्रह्म विचारक को भी यह सूक्ष्म भेद स्वयं एवं ब्रह्म में समझना चाहिये ॥४॥
(क्रमशः)
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