सोमवार, 16 जुलाई 2018

= लघुता का अंग ४२(२१/२४) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*तन मन मैदा पीसकर, छांण छांण ल्यौ लाइ ।*
*यों बिन दादू जीव का, कबहूँ साल न जाइ ॥*
*पीसे ऊपर पीसिये, छांणे ऊपर छांण ।*
*तो आत्म कण ऊबरै, दादू ऐसी जाण ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*लघुता का अंग ४२*
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नान्हों सौं नान्हैं हुये, बारीक हुं बारीक । 
सो रज्जब राम हिं मिले, जो चाहे लघु लीक ॥२१॥ 
जो अपने को लघु से भी लघु मानते हैं, और जिनकी वृत्ति विषय स्थूलता को त्याग कर सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हो गई है, इस प्रकार जो लघुता की लकीर पर चले हैं अर्थात लघु बने हैं, वे राम को प्राप्त हुये हैं । 
महा मिही१ मन को मिलै, सूक्षम सांई आय । 
जन रज्जब पति परसिये, आपा सकल उठाय ॥२२॥ 
जो महान् सूक्ष्म१ हो जाता है उसी मन को सूक्ष्म परमात्मा मिलते हैं, अत: संपूर्ण बड़पन के अहंकार को हृदय से हटा करके अपने स्वामी परमात्मा से मिलना चाहिये । 
बारीक मिही झीणहुं परे, शून्य समान न कोय । 
जन रज्जब तासौं मिलन, तब तैसा ही होय ॥२३॥ 
बारीक से भी बारीक उस से भी अति सूक्ष्म ब्रह्म के समान कोई नहीं है, उस ब्रह्म से मिलना है तो, उस ब्रह्म जैसा ही सूक्ष्म बन । 
निशा रूप नर देखिये, सांई सूर सुभाय । 
उभय सु आवे आप सौं, जे रज्जब रजनी जाय ॥२४॥ 
नर में बड़प्पन रात्रि के समान है और परमात्मा सूर्य के समान है, जब पृथ्वी से रात्रि चली जाती है और नर से बड़प्पन चला जाता है तब पृथ्वी पर सूर्य और नर के हृदय में परमात्मा दोनों अपने आप ही आ जाते हैं ।
(क्रमशः)

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