॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २. राग माली गौडी =*
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(६)
*गुरु ज्ञान बताया रे,*
*जग झूठ दिषाया रे, यौं निश्चयै आया रे ॥(टेक)*
गुरुदेव के उपदेश से मुझे जगत् के मिथ्यात्व का भान हो गया है । अतः मैंने भी यही निश्चय कर लिया है ॥टेक॥
*ज्यौं मृग जल दीसै रे,*
*कोई पिया न पीसै रे, यौं बिस्वा बीसै रे ॥१॥*
जैसे मृगमरीचिका का जल आज तक न किसी ने पीया है और न उसके पीने से किसी की पिपासा ही मिटी है - यही बात पूर्ण सत्य(बीस विस्वा) है ॥१॥
*ज्यौं रैंनि अंधारी रे,*
*रजु सर्प निहारी रे, भ्रम भागा भारी रे ॥२॥*
या जैसे अन्धकारावृत्त रात्रि में रज्जु में दिखायी देने वाला सर्प का भ्रम, प्रकाश होने पर स्वयं निवृत्त हो जाता है, तब सत्य रज्जु स्पष्ट प्रतीत होता है ॥२॥
*ज्यौं सींप अनूपा रे,*
*करि जान्यौ रूपा रे, कोई भयौ न भूपा रे ॥३॥*
या जैसे किसी मूर्ख द्वारा केवल शुक्ति को रजत मान लेने से उसको आज तक किसी ने राजा बनते नहीं देखा है ॥३॥
*बंध्या सूत झूलै रे,*
*आकास कै फूलै रे, नहिं सुन्दर भूलै रे ॥४॥*
या जैसे किसी ने किसी बन्ध्या का पुत्र झूले में झूलते हुए नहीं देखा, न किसी ने आकाश-कुसुम ही देखा है; उसी प्रकार, श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - मैं भी इस मिथ्या भ्रम से भ्रान्त नहीं हो सकता ॥४॥
(क्रमशः)
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