#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू आपा मेटे एक रस, मन हि स्थिर लै लीन ।*
*अरस परस आनन्द कर, सदा सुखी सो दीन ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*लघुता का अंग ४२*
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अकल१ कलै२ आपा उठे, दीन हुं दीन दयाल ।
रज्जब परिचय प्राण पति, होता है इस हाल ॥२५॥
जब हृदय में बड़प्पन का अहंकार हट जाता है तब उन दीन जनों का दीन दयालु निराकार१ परमात्मा के साथ सम्बन्ध२ हो जाता है, इस निरहंकार स्थिति में ही प्राण पति प्रभु का साक्षात्कार होता है ।
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रज्जब अपने लाभ को, ढीकू१ ढिग डंडौत ।
जग जगदीश्वर पाईये, मही महंत निनौत२ ॥२६॥
अपने लाभ के लिये पानी निकालने वाली ढीकली१ के पास भी नीचे झुकना पड़ता है तभी उस से जल मिलता है, वैसे ही पृथ्वी में प्रधान संतों के पास नम्रता२ पूर्वक दंडवत आदि करने से ही जगत् में जगदीश्वर प्राप्त होते हैं ।
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रज्जब रज ऊंची चढी, तो तामें क्या वित१ वीर२ ।
सांई सौंपी शक्ति सब, नीचा चलतों नीर ॥२७॥
हे भाई ! रज ऊंची चढ़ती हो तो उसमें क्या धातु रूप धन रहता है ? अर्थात नहीं, वैसे ही जो बड़ा बनता है उसमें कुछ विशेषता नहीं होती । जल आकाश से नीचे आता है इसी से उसे परमात्मा ने उत्पति, पोषण आदि की सब शक्ति दी है, वैसे ही जो न्रम होता है उसी को प्रभु विशेष शक्ति प्रदान करते हैं ।
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रज्जब ताक तराजू हिं, पुनि पलड़ा निरताय ।
भारी नीचे को धुके१, हलके ऊंचे जाय ॥२८॥
तुला को देखो ! फिर उसके पलङों को देख, भारी नीचे को झुका१ और हल्का ऊंचे जाता दिखाई देगा, वैसे ही मनुष्यों का विचार कर जो बड़ा होगा वह न्रम होगा और जो छोटा होगा वह अपने को बड़ा बतायेगा ।
(क्रमशः)
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