बुधवार, 18 जुलाई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐 
*आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।*
*दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥* 
*पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।*
*जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥* 
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साभार ~ Nishi Dureja
हीरा पायो गांठ गठियायो, 
बारबार बाको क्यों खोले। 
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, 
पूरी भई तब क्यों तोले॥
सुरत कलारी भई मतवारी, 
मदवा पी गई बिन तोले।
हंसा पाये मानसरोवर, 
तालत्तलैया क्यों डोले॥
तेरा साहब है घर मांही, 
बाहर नैना क्यों खोले। 
कहै कबीर सुनो भाई साधो, 
साहब मिल गए तिल ओले॥
कबीर के ये वचन बहुत महत्वपूर्ण हैं: मन मस्त हुआ तक क्यों बोले ! जब मस्ती आ जाएगी, जब उस ज्ञान की मदिरा उतरेगी, और जब तुम इतने आनंदित हो जाओगे... जब मन मस्त हुआ तब क्यों बोले,...तब बोलोगे कैसे ! तब बोलना होगा ही क्यों !
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इसका यह अर्थ हुआ कि जब तक तुम मस्त नहीं हो तभी तक बोल रहे हो। आदमी आनंदित होता है तो चुप होता है, दुखी होता है तो बोलता है। आदमी स्वस्थ होता है तो स्वास्थ्य की चर्चा नहीं करता; बीमार होता है तो बीमारी की बड़ी चर्चा करता है। जब तुम पूरे स्वस्थ होते हो तब तुम शरीर की बात ही भूल जाते हो। तब शरीर की बात ही क्या करनी, शरीर का पता ही नहीं चलता।
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च्चांगत्सु कहता है, जब जूता ठीक आ जाता है पैर पर तो भूल जाता है। जब जूता काटता है, तब पैर की याद आदती है। जब तुम्हारा सिर स्वस्थ होता है तब तुम सिर को भूल जाते हो। सच तो यह है, तुम बेसिर हो जाते हो। जब सिर में दर्द होता है तभी सिर का पता चलता है, बीमारी का बोध होता है। 
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इसलिए संस्कृत में दुख के लिए जो शब्द है, वही शब्द ज्ञान के लिए है। वेदना दुख का अर्थ भी रखता है और वेदना वेद का अर्थ भी रखता है—ज्ञान का। दुख का ही बोझ होता है। आनंद तो, जैसे शराब हो—सब बोध खो जाता है।...होश ही दुख का होता है। पैर में कांटा चुभता है तो पैर का पता चलता है, कांटा न चुभे तो पैर का पता नहीं चलता। पीड़ा का बोध है, आनंद का क्या बोध? आनंद के साथ तो हम इतने एक हो जाते हैं कि बोध किसको होगा, किसका होगा ! दुख के साथ फासला होता है। 
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...इसलिए ज्ञानियों ने कहा है: आनंद तुम्हारा स्वभाव है, दुख तुम्हारा स्वभाव नहीं; क्योंकि जिसके साथ हम एक नहीं हो पाते, वह हमारा स्वभाव कैसे होगा? पैर में कांटा लगा होना अस्वाभाविक है, इसलिए दुखता है। जब पैर में कांटा नहीं है—यह स्वाभाविक है—सब दुख खो गया, पैर भी खो गया ! जितने—जितने तुम स्वस्थ होते जाओगे, उतना—उतना कहने को क्या बचेगा? जब कोई परिपूर्ण स्वस्थ होता है—शरीर, मन, आत्मा, सब शांत हो जाते हैं—तब कहने को भी कुछ भी नहीं बचता।
जय हो .....

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