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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= ३. राग कल्याण =*
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(१)
(तिताला)
*तोहि लाभ कहा नर देह कौ ।*
*जो नहिं भजे जगपति स्वामी तौ पशुवन मैं छेह कौ ।(टेक)*
यदि तूँने यह देह पाकर भी जगदीश्वर का भजन नहीं किया तो अरे अभिमानी ! तुझे इस नरदेह प्राप्ति का क्या लाभ हुआ । इससे तो तूं पशु ही अच्छा था ।
*षान पान निद्रा सुख मंथन सुत दारा धन गह कौ ।*
*यह तौ ममत आहि सबहिंन कौं मिथ्या रूप सनेह कौ ॥१॥*
आज यह मानव देह पाकर संसार के अन्य प्राणियों की अपेक्षा, तेरा भोजन, वस्त्र, निद्रासुख, विषयभोग, पुत्र, स्त्री, धन एवं गृह विशिष्ट है । इस सब में तेरा इतना अधिक ममत्व(स्नेह) मिथ्या(निरर्थक) ही बना हुआ है ॥१॥
*समझि बिचार देषि या तन कौं बंध्यौं पूतरा षेह कौ ।*
*सुन्दरदास जानि जग झूठौ इनमैं कोउ न केह कौ ॥२॥*
वस्तुतः तूँ विचारपूर्वक देखै तो तूं ने इस शरीर में इतना अधिक स्नेह व्यर्थ ही पाल रखा है, अरे ! यह तो मिट्टी का पुतला है । श्रीसुन्दरदास जी महाराज कहते हैं - तूँ इस जगत् को सर्वथा ऐसा मिथ्या समझ कि यहाँ(इस जगत् में) कोई किसी का नहीं है ॥२॥
(क्रमशः)
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