सोमवार, 9 जुलाई 2018

= दास दीर्घा का अंग ४१(१-४) =

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*बावें देखि न दाहिने, तन मन सन्मुख राखि ।*
*दादू निर्मल तत्त्व गह, सत्य शब्द यहु साखि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*दास दीर्घा का अग ४१*
इस अंग में भक्त का बड़प्पन बता रहे हैं ... 
रज्जब चारी३ सुर सुरह१, सुरतरु सींचणहार२ । 
पूजै साधु प्रसिद्ध को, दातारों दातार ॥१॥ 
देवता, कामधेनु, कल्पवृक्ष और बादल ये चारों ही प्रसिद्ध संत को पूजते हैं कारण-उक्त चारों सांसारिक पदार्थ देते हैं और संत दानियों को भी मुक्ति देने से दातारों के भी दातार हैं । 
साधु पारस पौरषा, चिन्तामणि दातार । 
तहां रज्जब भृत भीख बिन, सो गति अगम अपार ॥२॥ 
संत पारस, पौरषा(मनुष्यकार सुवर्ण का पुतला, इसकी पूजा करके इसी के हाथ पैर काटने से वे प्रतिदिन पुन पूर्ववत ही हो जाते हैं) चिन्तामणी(हाथ में लेकर जो इच्छा करे वही देने वाली मणि) के समान दातार हैं किन्तु वहां भी भिक्षा माँगने का दोष है, और संतों की सेवा करने वाले गृहस्थ भक्त भिक्षा माँगने से दोष से रहित हैं, उन्हें संत सेवा रूप चेष्टा का फल अगम अपार ब्रह्म की प्राप्ति है, अत: दास बड़े हैं । 
सती१ यती२ सौं है बड़ा, सुखदाई सब जंत३ ।
रज्जब सींचे इन्द्र ज्यों, निष्कामी निज मंत४ ॥३॥ 
सद् गृहस्थ१ सन्यासी२ से भी बड़ा है, जैसे इन्द्र सबको जल प्रदान करता है, वैसे ही निष्काम भाव में स्थित अपने प्रयत्न४ द्वारा सब जीवों३ के लिये सुख दायक होता है ।
सेवक सांई सारिखा, आशबिना जो दास । 
वैरागर१ वैराग वश२, रज्जब रहै निराश ॥४॥ 
वैराग्य के कारण२ बिषयाशा से रहित रहने वाला साधु तो हीरे१ के समान है किन्तु जो बिषयाशा से रहित होकर भी संतों की सेवा कर रहा है वह गृहस्थ भक्त तो परमात्मा के समान ही है ।
(क्रमशः)

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