गुरुवार, 19 जुलाई 2018

= ७ =


卐 सत्यराम सा 卐
*भावै सब तजि रहै अकेला,* 
*भाई बन्धु न काहू मेला ॥*
*दादू देखै सांई सोई,* 
*साच बिना संतोष न होई ॥*
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साभार ~ Rasik Ruparel

मैंने सुना है, एक गुरुकुल में एक युवक उत्तीर्ण हुआ। गुरु उससे बहुत प्रसन्न था। गुरु ने कहा: तू मांग ले, तुझे क्या चाहिए? मैं तुझसे बहुत प्रसन्न हूं। उस युवक ने कहा: मुझे कुछ और मांगना नहीं। जब घर से आया था तो मेरे पिता बड़े कर्जदार थे, गरीब थे। मैं तो यहां वर्षों आश्रम में रहा, पता नहीं उनकी कैसी हालत है, चुका पाए कर्ज, नहीं चुका पाए। चुका भी दिया होगा तो भी गरीब ही होंगे, भूखे होंगे, बस एक ही आकांक्षा है कि जाकर किसी तरह उनकी सेवा कर सकूं।
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तो उसके गुरु ने कहा: तू एक काम कर। इस देश का जो सम्राट है, तू वहां चला जा। वह रोज सुबह एक व्यक्ति को वरदान देता है, जो भी मांगो। तो जल्दी से जाकर खड़े हो जाना। चार बजे रात ही पहुंच जाना, ताकि तू पहला मिलने वाला व्यक्ति हो। तो वह खड़ा हो गया चार बजे से। 
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पांच बजे सम्राट अपने बगीचे में घूमने निकला, तो उस युवक को खड़े देखा। पूछा, क्या चाहते हो? जब सम्राट ने यह पूछा क्या चाहते हो...गुरु ने कहा था; जो मांगेगा, वह सम्राट दे देगा। तो तुम सोच सकते हो, उसकी हालत बहुत मुश्किल हो गई। सोचा था कि पांच सौ रुपये मांग लूं। उस पुराने जमाने की बात। पांच सौ रुपये तो जिंदगी भर के लिए बहुत हो जाते हैं। मगर जब सम्राट ने कहा—मांग ले जो तुझे मांगना ! तो उसने सोचा मैं पागल हूं, अगर पांच सौ मांगूं। पांच हजार क्यों न मांगूं? पांच लाख क्यों न मांगूं? पांच करोड़ क्यों न मांगूं? बात बढ़ती चली गई। सम्राट ने कहा: मालूम होता है तू तय करके नहीं आया। तू विचार कर ले। मैं जब तक बगीचे का चक्कर लगा लूं।
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जब तक सम्राट ने बगीचे का चक्कर लगाया तब तक तो वह युवक बिलकुल पागल हालत में आ गया। संख्या बढ़ती ही चली जाती। जब देने को ही राजी है कोई, तो फिर कम क्यों मांगना ! जितनी उसे संख्या आती थी, वहां पहुंच गया, आखिरी संख्या पर पहुंच गया। तब सिर पीट लिया उसने कि गुरु सदा कहते थे गणित पर ध्यान दे, मैंने ज्यादा ध्यान न दिया। आज काम आ जाता। यह संख्या इससे ज्यादा मुझे आती नहीं। अब अटक गया।
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तब तक सम्राट आया। उसने पूछा: तू बड़ा बेचैन, परेशान मालूम होता है। बात क्या है? तू मांग ही ले, तुझे जो मांगना है। तो उसने कहा कि संकोच लगता है। सम्राट ने कहा: संकोच का सवाल ही नहीं। तू बोल। तो उसने कहा: ऐसा करें, मैंने बहुत सोचा, बहुत संख्या सोची, लेकिन गणित मेरा ठीक नहीं है और संख्या पर जाकर मैं अटक गया हूं। और अगर उतना मैं मांगूं तो जिंदगी भर पछताऊंगा कि और क्यों न मांग लिया। तो आप ऐसा करें कि आप जिस दरवाजे से मैं आया हूं बाहर निकल जाएं और जो आपके पास है, सब मुझे दे दें। तो मुझे जिंदगी में दुख नहीं होगा कि जो था सभी मिल गया, अब संख्या का कोई सवाल ही नहीं था। जितना है, सब दे दें।
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युवक तो सोचता था सम्राट घबड़ा जाएगा यह सुन कर। लेकिन सम्राट ने तो आकाश की तरफ हाथ जोड़े और कहा: हे प्रभु, तो तूने भेज दिया वह आदमी, जिसकी मुझे तलाश थी ! तब तो युवक थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा: बात क्या है? आप क्या कह रहे हैं? वह सम्राट बोला: अब तू सोच - विचार में मत पड़ जाना। तू भीतर जा, सम्हाल ! मैं थक गया हूं बहुत। और मैं वर्षों से प्रार्थना कर रहा हूं कि हे प्रभु, किसी को भेज दो, जो सब मांग ले। आज सुन ली उसने !
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उस युवक ने कहा: मुझे एक दफा और सोचने का मौका दें। आप एक चक्कर और बगीचे का लगा आएं। सम्राट ने कहा कि नहीं, मुश्किल से तू आया है। वर्षों हो गए मुझे दान देते; मगर छोटे - छोटे दान लोग मांगते, उससे क्या बनता - बिगड़ता है ! तू हिम्मतवर आदमी है। सोचने की अब क्या जरूरत है? फिर सोचना मजे से। महल में जा, वहीं सोचना। जैसे हम सोचते रहे जिंदगी भर, तू भी सोचना। जल्दी क्या है? तू अभी जवान है।
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उस युवक ने कहा कि नहीं, एक मौका तो मुझे देना ही पड़ेगा। सम्राट चक्कर लगा कर आया और जो उसने सोचा था वही हुआ, युवक भाग गया था। द्वारपाल को कह गया था: मेरी तरफ से क्षमा मांग लेना। क्योंकि जब सम्राट इतने सब होने से तृप्त नहीं हुआ, तो अब इस झंझट में मैं क्यों पडूं। इसकी जिंदगी खराब हुई, मेरी भी खराब करूं। धन कितना ही हो, तुम निर्धन बने ही रहते हो। तो धन में परम धन की तलाश चल रही है। परमात्मा की तलाश चल रही है। आदमी सभी दिशाओं में उसी को खोज रहा है।
-- पग घुंघुरु बाँध , प्रवचन # १५
-- ओशो

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