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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय (जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय (चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= १-जकड़ी राग गौड़ी =*
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(९)
(ताल तिताला)
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*सास बिचारी ज्यौं त्यौं नीकी सुसरौ बडौ कसाई ।*
*तास्यौं संगति बनै न कबहूं निकसिइ भग्यौ जंवांई ॥३॥*
बेचारी सास(बुद्धि) जिस किसी तरह घर में पड़ी हुई अपने दिन बिता रही है । क्योंकि मात्सर्यरूप श्वसुर बहुत अधिक निर्दय(क्रूर) है । उसके साथ किसी भी प्रकार मेल(मिलन) होना सम्भव नहीं दीखता । इसी लिये क्रोध, अभिमान रूप जंवाई(जामाता) भी अपना घर(मेरा हृदय) छोड़ गया है ॥३॥
*पुत्र हुवौ परि पाइ पांगुलौ नैनं अनन्त अपारा ।*
*सुन्दरदास इसौ कुल दीपग कियौ कुटंब संहारा ॥४॥*
पुत्र(ज्ञान) अज्ञान रूप पैरों के निष्क्रिय हो जाने से पंगुल(गतिहीन) हो गया है । तथा नेत्र भी दिव्य दृष्टि मिल जाने से लोकदृष्टि से हीन हो गये हैं । महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं - ऐसे कुल दीपक(जिज्ञासु) ने अपने समस्त कुल का संहार कर दिया है ॥४॥
(क्रमशः)
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