शनिवार, 7 जुलाई 2018

= चरणोदक प्रसाद का अंग ४०(५-८) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सच बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ ।*
*भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*चरणोदक प्रसाद का अंग ४०*
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उडहिं जु बात हिं बात, सो मानिख१ माँटी निकण२ । 
ता में धर्म न धात३, विषय वायु वश ह्वै बहै४ ॥५॥ 
जो मिट्टी के सूक्ष्मकण२ वायु से उड़ते है, उनमें कोई धातु३ नहीं होती, वे तो वायु के वश होकर उड़ते४ रहते हैं, वैसे ही जो मनुष्य१ बातों ही बातों से ही उड़ते हैं, अर्थात दुसरों के बहकावे में आकर अपनी निष्ठा को त्यागते हैं उनमें धर्म नहीं होता, वे तो विषयों के वश हुये तहां जहां धुमते रहते हैं । भाव यह है कि - अंश्रद्धालुओं की बातों के प्रसाद सम्बन्धी श्रद्धा छोड़ देते हैं । 
ज्यों न्यार्या१ नर धोवतैं, कंचन किरची२ मेल । 
तैसे रज्जब साध के, चरणोदक में खेल ॥६॥ 
मार्ग की रेत छानने वाला१ नर सुनार की साख धोता है तब उसे सुवर्ण का नुकीला छोटा टुकड़ा२ मिलता है, वैसे ही सन्तों के चरण धोकर लेने वाले को पुण्य मिलता है । 
कंचन किरची१ पाइये, नर न्यारे को धोय । 
रज्जब पुणे२ पहाड़ के, वित्त३ न लाभै कोय ॥७॥ 
सुनारों की राख धोने से न्यारे नर को सुवर्ण के नुकिले टुकड़े१ मिल जाते हैं, किन्तु पहाड़ धोने२ से धन३ का लाभ नहीं होता, वैसे ही संतों के चरण धोकर लेने से पुण्य मिलता है किन्तु लौकिक दृष्टि से बङों के चरण धोने से पुण्य नहीं मिलता । 
स्त्रवी सु सोवन शैल तैं, तिन सलितों रज हेम । 
रज्जब लहै न और नदी, मनसा वाचा नेम ॥८॥ 
जो सुवर्ण के पर्वत चली है उन्हीं नदियों की रज में सुवर्ण है, हम मन वचन से नियम कर के कहते हैं, अन्य नदियों की रज में सुवर्ण नहीं मिलता, वैसे ही संत चरण-जल से पुण्य लाभ होता है, अन्य से नहीं ।
(क्रमशः)

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