#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*गर्व गंजन का अंग ४३*
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बैठे रथों देवता सारे, सो सब कहो कहां थे डारे ।
रज्जब सेवक सेवा मांहिं, तिन के पट्टे उतारे नाँहिं ॥२९॥
सभी देवता रथों पर बैठते हैं, उन सब को नीचे कहाँ डाले थे ? उसी प्रकार जो सेवक सेवा में स्थित है उनके उनके पट्टे नहीं उतारे जाते अर्थात अभिमान रहितों का पतन नहीं होता ।
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छप्पैया :-
ब्रह्मा वाहन हंस, विष्णु के वाहन खगपति ।
शंकर वाहन बैल, मूस पर मँडे सु गणपति ॥
कार्तिक स्वामी मोर, शक्ति सत सिंह विराजे ।
हय गज सूरज इन्द्र, शशि रथ सारंग साजे ॥
सुर सबहि न प्यारे पहुंण, तिनके काज न बीगड़े ।
जे रज्जब आपे चढे, ते परलै विमुख सु पड़े ॥३०॥
ब्रह्मा का वाहन हंस है, विष्णु का गरूड़, शंकर का बैल, गणपति का चूहा, स्वामी कार्तियकेय का मोर, देवी का सिंह, सूर्य का अश्व, इन्द्र का हाथी, चन्द्रमा का मृग है, सभी देवताओं को अपने-वाहन प्रिय हैं और उन पर चढ़ने से उन देवताओं के कार्य नहीं बिगड़े किन्तु जो गर्व पर चढे हैं अर्थात गर्व से ऊंचे चढे हैं वे प्रभु से विमुख प्राणी विनाश को ही प्राप्त हुये हैं यह सत्य है ।
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रज्जब रीती बंदगी, जब लग आपा माँहिं ।
मनसा वाचा कर्मना, साहिब माने नांहिं ॥३१॥
जब तक मन में गर्व है तब तक उपासना रीती है अर्थात सार रहित है, हम मन वचन कर्म से कहते हैं उस उपासना को प्रभु अच्छी नहीं मानते ।
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वपु हांडी बा१ राह२ की, करहुं न गर्व गुमान ।
रे रज्जब यूं जान ले, जे तु चतुर सुजान ॥३२॥
यह शरीर रूप हंडिया उस१ विनाश रूप मार्ग२ में जाने वाली अर्थात नष्ट होने वाली है, इसका गर्व गुमान नहीं करना चाहिये । यदि तू चतुर सुजान है तो ऐसा ही जान कर भगवद् भजन कर ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित गर्व गंजन का अंग ४३ समाप्त । सा. १४०८ ॥
(क्रमशः)
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