रविवार, 1 जुलाई 2018

= १७२ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू काल हमारे कंध चढ, सदा बजावै तूर ।*
*कालहरण कर्त्ता पुरुष, क्यों न सँभाले शूर ॥* 
*जहाँ जहाँ दादू पग धरै, तहाँ काल का फंध ।*
*सर ऊपर सांधे खड़ा, अजहुँ न चेते अंध ॥* 
===========================

तुम परमात्मा से बच रहे हो। कितने जन्मों से बचते आ रहे हो ! कब तक और बचना है ? कब तक ऐसे ही खाली-खाली बांस की पोंगरी रहोगे, बांस के टुकड़े रहोगे ? कब तक यह गागर खाली रहेगी जो अमृत से भरने को बनी है, जिसमें जल की एक बूंद भी नहीं है, अमृत की बूंद तो बहुत दूर। और भर सकती है अभी और यहीं और इसी क्षण, मगर तुम कहते हो, कल ! तुम टाले चले जाते हो।
.
या देही का कौन भरोसा . . .
टाल रहे हो बिना इस बात को समझे कि इस देह का कोई भरोसा नहीं है। यह एक क्षण भी टिकेगी या नहीं ? कल सुबह होगी या नहीं? जो समझते हैं वे हर रात परमात्मा को धन्यवाद देकर सोते हैं कि आज का दिन तूने दिया, धन्यवाद ! अब कल सुबह उठूं या न उठूं, इसलिए आखिरी नमस्कार। 
.
जब सुबह उठते हैं तो जो समझदार हैं वे फिर परमात्मा को धन्यवाद देते हैं कि चमत्कार ! कि मैं तो सोचता था कि आखिरी नमस्कार हो गया, फिर आज उठ आया हूं, फिर तूने सूरज दिखाया, फिर पक्षियों के गीत सुनाई पड़ रहे हैं, धन्यवाद ! इस आखिरी दिन के लिए फिर धन्यवाद ! सुबह भी आखिरी दिन है, सांझ भी आखिरी दिन है, ऐसा ही समझदार आदमी जीता है; यही उसकी बंदगी है। मूढ़ की तो न आखिरी रात होती है न आखिरी दिन होता है; वह तो मरते-मरते तक योजनाएं बनाता रहता है, आखिरी क्षण तक मरते-मरते हिसाब लगाता रहता है। मौत द्वार पर आ जाती है, फिर भी उसे दिखाई नहीं पड़ती। ऐसा हमारा अंधापन है।
.
या देही का कौन भरोसा, उभसा भाठा पानी... जैसे ज्वार-भाटा उठता है सागर में - उठा और गया, आया और गया, लहर आई और बीती, ऐसी यह जिंदगी है ज्वार-भाटे की तरह। इस देह का क्या भरोसा कर रहे हो? इस देह की क्षमता तुम सोचते हो? अठानवे डिग्री गर्मी है तो ठीक जिंदा हो। जरा चार-छः डिग्री गिर जाए, बस चार-छः डिग्री गर्मी नीचे गिर जाए कि ठंडे हो गए, कि जरा दस डिग्री ऊपर चढ़ जाए कि वाष्पीभूत हो गए। तो तुम्हारी जिंदगी का घेरा कितना हुआ? यह कोई दस-पंद्रह डिग्री का घेरा है। इतनी-सी तुम्हारी सीमा है। एक बूंद जहर की, और सब समाप्त हो जाता है। इतनी हमारी क्षमता है। इतनी हमारी पात्रता है।
.
हिरोशिमा पर पहला अणुबम गिरा, पांच मिनिट के भीतर एक लाख व्यक्ति राख हो गए। हमारे जैसे ही लोग थे। सब तरह की योजनाओं में लगे होंगे। कोई फिल्म की टिकिट खरीदकर लाया होगा और आज रात फिल्म देखनी थी। और कोई सर्कस जाना चाहता होगा। और किसी के घर बैंड-बाजे बज रहे होंगे और शहनाई बज रही होगी, विवाह हो रहा था। और किसी के घर बेटा पैदा हुआ था और उत्सव मनाया जा रहा था। और किसी का प्रियजन घर आया था और उसने दीपावली मनाई थी। और सब कुछ हो रहा होगा जैसा सारे नगरों में होता है। दूल्हे सज रहे होंगे, दुल्हनें सज रही होंगी, बच्चे कल के स्कूल की तैयारी कर रहे होंगे। सब वैसे ही चल रहा होगा जैसे सारी दुनिया में चल रहा है। और बस पांच मिनिट में सब ठंडा हो गया, सब राख हो गया ! 
.
सब सपने ऐसे तिरोहित हो गए जैसे कभी थे ही नहीं। खोजने से एक आदमी न मिलता, एक चेहरा पहचान में न आता। सब लाशें ही लाशें हो गईं। ऐसी क्षणभंगुर जिंदगी पर कैसे भरोसा कर रहे हो? अभी हम सब बैठे हैं और एक क्षण में सब समाप्त हो सकता है। पता भी नहीं चलेगा कब समाप्त हो गया। सूरज ठंडा हो जाए - एक न एक दिन ठंडा होगा; जिस दिन ठंडा हो जाएगा उसी दिन पृथ्वी ठंडी हो जाएगी। फूल जहां के तहां कुम्हला जाएंगे। श्वास जो भीतर गई, बाहर न आएगी; जो बाहर गई, भीतर न आएगी। ऐसे क्षणभंगुर जीवन पर कितना भरोसा कर रखा है हमने !
.
और फिर सूरज ठंडा हो या न हो, एक-एक व्यक्ति का सूरज तो ठंडा होता ही है। रोज कोई मरता है गांव में, रोज कोई अर्थी उठती है, फिर भी तुम्हें याद नहीं आता, एक लहर और मिट गई ! ऐसी ही एक लहर तुम भी हो।
.
ओशो, प्रेम - रंग - रस ओढ़ चदरिया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें