सोमवार, 2 जुलाई 2018

= १७४ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू दूजे अन्तर होत है, जनि आणै मन मांहि ।*
*तहँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥*
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साभार ~ Gems of Osho

*स्वयं की खोज*
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एक नदी पर सांझ सूरज ढलता था। दो भिक्षु नाव से उतरे, एक युवा भिक्षु था और एक बूढ़ा। उन दोनों ने मांझी से पूछा कि क्या सूरज डूबने तक हम, यह जो सूरज की डूबती रोशनी में चमकती हुई दीवाल है गांव की, वहां तक पहुंच जाएंगे? पास ही गांव था और उसके चारों तरफ किले की दीवाल थी, और नियम था कि सूरज डूबने के साथ ही उस गांव का दरवाजा बंद हो जाएगा। तो उन दोनों भिक्षुओं ने पूछा कि क्या हम पहुंच जाएंगे सूरज के डूबते-डूबते? 
उस बूढ़े मांझी ने कहा कि अगर धीरे गए तो पहुंच जाओगे और अगर जल्दी गए तो पहुंचना बहुत मुश्किल है। 
उन दोनों भिक्षुओं ने समझा कि यह आदमी पागल है। क्योंकि जो यह कहता हो कि धीरे चलोगे तो पहुंच जाओगे और जल्दी चले तो नहीं पहुंच पाओगे, उसको कौन समझदार समझेगा? उसे तो कोई भी पागल समझेगा। पूरी दुनिया पागल समझेगी, आप भी पागल समझेंगे। क्योंकि दुनिया में तो हम यही जानते हैं--दौड़ना जानते हैं, शीघ्रता जानते हैं। यह क्या बात? उसकी बात सुनने को फिर वे और नहीं ठहरे, उसकी बात सुनने जैसी नहीं थी। उसकी पहली बात ही बड़ी गड़बड़ थी।
वे दोनों भागे। उचित था यही। तर्क यही कहता है, बुद्धि यही कहती है: अगर पहुंचना है तो दौड़ो। और सूरज ढला जाता है, सांझ हुई जाती है। रात घिर आएगी, द्वार बंद हो जाएंगे, पहुंचना मुश्किल है, फिर रात बाहर ही ठहर जाना होगा। इसलिए वे भागे, जितनी उनमें शक्ति थी उतनी शक्ति लेकर भागे।
थोड़ी ही देर बाद बूढ़ा भिक्षु गिर पड़ा। उतनी शक्ति न थी दौड़ने की, सिर पर बोझ था ग्रंथों का, ग्रंथ लिए हुए था। गठरी गिर गई और ग्रंथ बिखर गए और उनके पन्ने उड़ गए। पीछे से उस मांझी ने अपनी नौका बांधी और वह भी अपनी पतवार लेकर धीरे-धीरे आता था। युवा भिक्षु बूढ़े भिक्षु के पैरों से खून को साफ कर रहा था और पट्टी बांध रहा था। उस मांझी ने आकर कहा कि मेरे मित्रो, मैंने कहा था: अगर धीरे जाओगे, पहुंच जाओगे; अगर जोर से गए, नहीं पहुंच पाओगे। तब उन्हें खयाल में आया कि धीरे चलने की भी कोई कला होती है। 
लेकिन उसने तो कहा था: धीरे चलोगे तो पहुंच जाओगे। इन तीन दिनों में मैं तो और भी बड़े पागलपन की बात आपसे कहने को हूं। मैं तो यह कहने को हूं कि चले तो कभी न पहुंच पाओगे। तो जब धीमे चलने को ही कोई पागलपन समझे और तेजी से चलना समझदारी मालूम हो तो फिर मेरी बात कैसी लगेगी?
लेकिन कुछ कारण हैं जिनसे ऐसा कहता हूं। वे कारण तो धीरे-धीरे तीन दिनों में आपको स्पष्ट करूंगा। आज तो शुरू में, सूत्र रूप में कुछ बातें कह देनी जरूरी हैं जो तीन दिनों में आपके खयाल में आ जाएंगी। 
सबसे पहली बात यही और वह यह कि मनुष्य के भीतर कुछ है। और जो उस भीतर के सत्य को जाने बिना जीवन में कुछ भी खोजता है वह व्यर्थ ही खोजता है। यदि मैं यह भी न जान पाऊं कि मैं क्या हूं और कौन हूं, तो मेरी सारी खोज का क्या अर्थ होगा? चाहे वह खोज धन की हो, चाहे पद की, चाहे यश की, चाहे परमात्मा की और चाहे मोक्ष की।
मेरी सारी खोज व्यर्थ होगी। क्योंकि जो मैं था उसको भी मैंने नहीं जाना था। और यह जो मैं हूं, इसे जानने के लिए कहां दौड़ेंगे? कहां जाएंगे? क्या करेंगे? इसे जानने को तो सारी दौड़ छोड़ कर रुक जाना पड़ेगा। इसे जानने को तो सारी खोज छोड़ कर ठहर जाना पड़ेगा। क्योंकि जो चित्त खोजता है वह चित्त उद्विग्न हो जाता है, तनाव से भर जाता है, अशांत हो जाता है। तो यदि मैं सारी खोज छोड़ कर ठहर सकूं, मेरे मन में कोई खोज न हो, कहीं पहुंचने का खयाल न हो, कहीं जाना न हो, तो क्या होगा? सारी उद्विग्नता, सारी दौड़, सारी खोज जहां न होगी, वहां एक अदभुत शांति अवतरित होगी। एक मौन, एक साइलेंस आनी शुरू होगी, एक शांति आनी शुरू होगी। क्योंकि जो दौड़ने के खयाल में नहीं है वह एकदम शांत हो जाता है। और उस शांति में ही उसके दर्शन होंगे जो मैं हूं। 
रोम रोम रस पीजे ~ ओशो

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