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卐 सत्यराम सा 卐
*माणस जल का बुदबुदा, पानी का पोटा ।*
*दादू काया कोट में, मैं वासी मोटा ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*लघुता का अंग ४२*
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नरहरि१ आव हिं नीर ज्यों, नम्री२ भूत निवान ।
रज्जब अज्जब दीनता, छह३ दर्शन कहि छान४ ॥१७॥
जैसे जल तालाब में आता है, वैसे ही भगवान्१ नम्रता२ युक्त भक्त के आते है, छ:३ शास्त्र तथा योगी, जंगम, सेवड़े, बौद्ध, सन्यासी और शेष, ये ६ प्रकार के भेषधारी भी अनुसंधान४ करके कहते हैं कि - दीनता अद्भुत गुण है ।
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गरीब निवाज गुसांइयाँ, वे सर जु विरुद१ न कोय ।
निरख नीच कुल पद्मनि, साखि भरैं सब कोय ॥१८॥
देखो, पद्मनि जाति की नारी नीच कुल में उत्पन्न हो जाती है, इस की साक्षी सभी देते हैं, वैसे ही ईश्वर भी विश्व में फैले हुये अपने यश१ को नहीं भूलते नीच कुल में उत्पन्न नम्र भक्त को भी दर्शन देते हैं ।
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मिंहदी चंदन चाहि कर, काजल सुरमा जोय ।
पग छाती नैंन हुं चढे, रज्जब नान्हे होय ॥१९॥
मेंहदी, चन्दन, काजल और सुरमा पीस कर महीन बनाये जाते हैं तब ही मेंहदी माता बहिनों के चरणों में लगती है, चन्दन घिसने से ही छाती को लगाया जाता है, काजल तथा सुरमा महिन होने से ही नेत्रों में लगाया जाता है वैसे ही भगवत् प्राप्ति की इच्छा द्वारा लघुता आती है तब ही भगवत् को प्राप्त होता है ।
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साधु केशर अंग१, कसत२ घसत उपमा बढै ।
रज्जब रचना रंग३, तिलक छंट४ मस्तक चढै ॥२०॥
साधक संत का अन्त:करण१ केशर के समान है, केशर को घिसते हैं तब ही उस की रंग रूप उपमा बढ़ती है और उसकी बिन्दु४ मस्तक पर लगाई जाती है, वैसे ही संत का अन्त:करण कष्ट२ देने पर लघुता से युक्त होता है, उस लघुता की उत्पत्ति से भगवत् प्रेम३ जमता है और प्रेम से भगवान् से मिलता है ।
(क्रमशः)
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