मंगलवार, 17 जुलाई 2018

= ४ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जैसा ब्रह्म है, तैसी अनुभव उपजी होइ ।*
*जैसा है तैसा कहै, दादू विरला कोइ ॥* 
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साभार ~ Gems of Osho
*भगवान, मुंडकोपनिषद का लेखक कौन है?*
भोलेराम ! बाबा, क्या मुंडकोपनिषद के लेखक से नाराज हो गए? कि देखें, कौन है यह ! कि इसको ठीक करें ! मैं डर रहा था कि कोई यह प्रश्न न पूछ ले ! क्योंकि मुझे भी पता नहीं कि मुंडकोपनिषद के लेखक कौन हैं। असल में मैंने भी जब पहली दफा मुंडकोपनिषद पढ़ा था, तो यह सवाल मुझे उठा था। उम्र तब मेरी छोटी थी जब मेरे हाथ में पहली दफा मुंडकोपनिषद पड़ गया। घर में उसकी कापी पुराने दिनों से पड़ी थी। उठा कर मैंने देखा। पहला ही सवाल यह उठा कि मुंडकोपनिषद ! यह भी कोई नाम हुआ ! किसने लिखा? और क्या नाम दिया ! अरे, कम से कम नाम तो ठीक दे देते !
लोग सड़ी-गली चीजों को भी क्या-क्या नाम देते हैं ! रसमलाई ! चमचम ! रसगुल्ला ! क्या-क्या नाम देते हैं ! मुंडकोपनिषद ! मुझे लगा, हो न हो--मेरे मोहल्ले में एक पहलवान थे; उनका नाम था मुंडे पहलवान। हो न हो इसी आदमी ने लिखा है ! थे भी गड़बड़ ही वे। और सभी चीजों में गुणी थे। भांग वे पीएं; गांजा वे पीएं; अफीम का सेवन वे करें; शराब वे पीएं। और जब नशे में होते थे, तो बड़ी ब्रह्मचर्चा करते थे ! तो मैंने कहा, जरूर इसी आदमी ने पीनक में आकर मुंडकोपनिषद लिख दिया है ! और मुंडे पहलवान, तो मुंडकोपनिषद नाम जंचता है ! कि किसी मुंडे ने लिखा है !
मेरा उनसे दोस्ताना था। यूं तो उम्र में बहुत फासला था। दोस्ती हो जाने का कारण था कि मुझे भी एक शौक था और वही शौक उनको भी था, पतंग लड़ाने का शौक। उनको कोई काम-धाम नहीं था; दादागिरी उनका धंधा थी। कमाने वगैरह का कोई सवाल न था। सो वे पतंग लड़ाते थे। और मुझे भी पतंग लड़ाने का शौक था। और वे तो बड़े प्रसिद्ध लड़ाके थे पतंग के। लखनऊ तक पतंग लड़ाने जाते थे। गांव में तो कोई उनसे पतंग लड़ाने की हिम्मत ही नहीं कर सकता था। क्योंकि दिन भर मंजा लगाना ! उनका काम ही यह था। सुबह से डंड-बैठक; फिर डट कर दूध-जलेबी; फिर मंजे पर उतर जाते वे। तो उनके शागिर्द घोंट रहे हैं कांच ! फिर लुब्दी बनाई जा रही है ! फिर मंजा चढ़ाया जा रहा है !
और मुझे भी पतंग लड़ाने का शौक उन्हीं को देख कर पैदा हो गया था। और मेरी उनसे दोस्ती इसलिए हो गई कि मैंने एक बार उनका पतंग काट दिया ! उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, बेटा, आज तक मेरा पतंग कोई नहीं काट सका ! पहली तो बात, कोई मुझसे पतंग लड़ाने की हिम्मत ही नहीं करता, क्योंकि लोग डरते हैं कि कोई झगड़ा-झांसा खड़ा न हो जाए ! एक तो तूने पतंग लड़ाने की हिम्मत की...। मैंने कहा, मुझे मालूम नहीं था कि पतंग आपका है। नहीं तो मैं भी इस झंझट में नहीं पड़ता।और गजब कि तूने मेरा पतंग काट दिया ! मस्ती में थे। आशीर्वाद दे गए कि तू बड़ों-बड़ों के पतंग काटेगा ! मैंने कहा, यह तो...।
तब से मैं वही काम कर रहा हूं! अब तो छोटे-बड़े का फर्क ही नहीं करता! समदृष्टि से काटता हूं ! पतंग होना चाहिए--छोटे का हो, बड़े का हो; शंभु महाराज का हो, कि मोरारजी देसाई का हो, कि मुक्तानंद का हो, कि डोंगरेजी महाराज का हो--पतंग होना चाहिए ! छोटे-बड़े का क्या भेद करना ! समदृष्टि रखनी चाहिए। मगर वे क्या आशीर्वाद दे गए मुंडे पहलवान, वह काम अभी तक नहीं छूटा ! और वह छूटने वाला भी नहीं है।
तो मैंने सोचा कि हो न हो, इन्होंने ही यह मुंडकोपनिषद लिखा है! और तो मैं कुछ समझा नहीं किताब में अंदर, लेकिन बस वह शब्द मुझे मुंडकोपनिषद पकड़ गया। सो सांझ को मैं उनके दरबार में हाजिर हुआ। पास में ही उनका अखाड़ा था। वे भंग चढ़ा कर--एक शागिर्द उनका पैर दबा रहा था, दूसरा शागिर्द उनकी चंपी कर रहा था--खाट पर लेटे हुए थे। मस्ती में कुछ गुनगुना रहे थे। मैं जाकर पास बैठ गया। मैं उनको काका कहता था, आदर के कारण। मैंने कहा, काका, एक सवाल पूछूं?
उन्होंने कहा, पूछो बेटा, जरूर पूछो। अरे, पूछोगे नहीं, तो जानोगे कैसे !
जब वे पीनक में होते, तो बड़ी गजब की बातें कहते थे !
जरूर पूछो, कहने लगे, जिन खोजा तिन खोइयां, गहरे पानी पैठ।
मैंने कहा, आप कबीर को भी चारों खाने चित्त कर दिए !
जिन खोजा तिन खोइयां, गहरे पानी पैठ ! अरे, पूछोगे नहीं, तो जानोगे कैसे ! पूछो।
अंग्रेजी के वे दो शब्द बोलते थे। एक, व्हाय नाट ! वे एकदम से मुझसे बोले, व्हाय नाट ! पूछो !
व्हाय नाट उनका तकिया कलाम था। किसी भी चीज में व्हाय नाट कह देते थे। जैसे उनसे जय रामजी करो: काका, जय रामजी ! वे कहते, व्हाय नाट ! जिसमें कोई संबंध ही नहीं होता था ! कि काका, कहां जा रहे हो? वे कहते, व्हाय नाट !
उन्हें अर्थ का संबंध नहीं था। इसको कहते हैं ऋषि ! जो शब्द बोलें, अर्थ उसके पीछे आता है ! वे मुझसे बोले, व्हाय नाट ! पूछो, क्या पूछना है? मैंने कहा कि एक किताब मेरे हाथ लग गई, मुंडकोपनिषद ! यह सवाल उठता है कि यह किसने लिखी और किसने यह नाम दिया?
वे कुछ सोच-विचार में पड़ गए ! उपनिषद वगैरह से उनका क्या नाता रहा ! फिर मैंने ही उनसे कहा कि मुझे यह शक हुआ कि हो न हो, आपने ही लिखी होगी ! क्योंकि मुंडे पहलवान, आप ही एक जाहिर आदमी हैं ! बड़े प्रेम से मुस्कुराए और बोले, बेटा, जवानी में आदमी से कई तरह की भूलें हो जाती हैं ! अरे, लिख दी होगी ! बीती ताहि बिसार दे ! अब जो हुआ, सो हो गया। तू भी कहां की पुरानी बातें उखाड़ता है ! अब जाने भी दे। जो हो गया, हो गया ! तेरे हाथ में कहां से लग गई? लिख दी होगी ! कई काम जवानी में कर गया, जो नहीं करने थे। मगर जवानी में कौन भूल-चूक नहीं करता ! मैंने कहा, व्हाय नाट !
मैं भी उनकी भाषा का धीरे-धीरे उपयोग करने लगा था। मुझे भी पता नहीं था कि व्हाय नाट का मतलब क्या होता है ! और दूसरा शब्द उनका अंग्रेजी का था, कि जैसे हम कहते हैं कि तबीयत बाग-बाग हो गई। वे कहते, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई ! जब उन्होंने मेरे मुंह से सुना व्हाय नाट, बोले, तबीयत गार्डन-गार्डन हो गई ! क्या बात तूने कही ! होनहार बिरवान के होत चीकने पात। वे मुझसे बोले कि तू जरूर कुछ करके दिखाएगा ! मैंने कहा कि देखें, आपका आशीर्वाद रहा, तो लिखूंगा कोई मुंडकोपनिषद !
भोलेराम, तुम पूछ रहे हो, "कौन लेखक था?'
मुझे पता नहीं ! अब तो मुंडे पहलवान भी मर चुके !
*उपनिषद किसी ने लिखे नहीं। उपनिषद कहे गए। सच में तो कोई ऋषि कभी कुछ नहीं लिखा। जिन्होंने जाना है, उन्होंने लिखा नहीं; और जिन्होंने लिखा है, उन्होंने जाना नहीं। जानने वाले बोले, लिखे नहीं। फिर शिष्यों ने लिख लिए।* शिष्यों ने संक्षिप्त नोट्स लिख लिए, ताकि आने वाली सदियों के काम आ सकें।
*ये उपनिषद लिखे गए शिष्यों के द्वारा; कहे गए ऋषियों के द्वारा। ऋषि बोलते हैं, सिर्फ बोलते हैं। क्योंकि बोलने में शब्द जीवित होता है। और जीवित शब्द ही एक हृदय से दूसरे हृदय में प्रवेश कर सकता है। और जीवित शब्द ही मुक्तिदायी है।*
अनहद में बिसराम ~ ओशो

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