शनिवार, 14 जुलाई 2018

= १९८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*चर्म दृष्टि देखै बहुत, आतम दृष्टि एक ।*
*ब्रह्म दृष्टि परचै भया, तब दादू बैठा देख ॥*
*ये ही नैनां देह के, ये ही आत्म होइ ।*
*ये ही नैनां ब्रह्म के, दादू पलटे दोइ ॥*
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साभार ~ Osho Prem Sandesh
*कबीरवाणी*
ना मैं बकरी, ना मैं भेड़ी, न मैं छुरीगंड़ास में।।
नहीं खाल में, नहिं पोंछ में, ना हड्डी, ना मांस में।
ना मैं देवल, ना मैं मस्जिद, ना काबेकैलास में।।
ना तो कौनो क्रिया-कर्म में, नहीं जोग-बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल-भर की तालास में।।
मैं तो रहौं सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में।।
परमात्मा प्रत्येक का स्वभावसिद्ध अधिकार है। उसे खोया होता तो तुम कभी पा न सकते थे। उसे खोया नहीं है, इसलिए पाने की संभावना है। और उसे खोया नहीं है, इसलिए खोज बड़ी मुश्किल है। *जिसे खो दिया हो, उसे खोजने की संभावना बन जाती है। लेकिन जिसे खोया ही न हो, उसे तुम खोजोगे कैसे ? इसलिए परमात्मा पहेली बन जाना है।* इस पहेली को ठीक से समझ लें। इस पहेली के कुछ आधारभूत नियम हैं।
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पहला नियम : जिसे तुमने सदा से पाया है, उसकी तुम्हें याद नहीं आ सकती। वह सदा ही तुम्हें मिल रहा है; एक क्षण को भी वियोग नहीं हुआ। याद तो उसकी आती है, जिससे वियोग हो जाए। मछली को सागर का पहली बार पता चलता है, जब वह सागर के बाहर निकाली जाती है। अन्यथा मछली को पता नहीं चलता कि सागर है। पता चलेगा कैसे ? सागर में ही पैदा हुई; सागर में ही आँख खोली; सागर में जीयी; सागर में ही दौड़ी-भागी, सुख-दुःख पाए; सागर से सदा ही घिरी रही; बाहर भी सागर, भीतर भी सागर - सागर का पता कैसे चलेगा ? 
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*पता चलने के लिए वियोग जरूरी है। तो मछुआ जब मछली को बाहर निकाल लेता है सागर से, तब पहली दफा सागर की याद आती है। लेकिन तुम्हें तो परमात्मा के बाहर निकालने का कोई उपाय नहीं है; कोई मछुआ नहीं है, जो तुम्हें बाहर निकाल ले; कोई जाल नहीं है, जो तुम्हें परमात्मा के बाहर निकाल ले; कोई किनारा नहीं है, जहां तुम्हें परमात्मा के बाहर निकाल लिया जाए। परमात्मा बेकिनारा है। उसकी कोई सीमा नहीं है, जहाँ वह समाप्त होता है। तुम उसके बाहर नहीं जा सकते - यही अड़चन है।*
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इसलिए उसकी याद नहीं आती। याद आए कैसे ? यह तो पहली कठिनाई है पहेली की। *वियोग हो सकता तो योग बड़ा आसान था। तब कोई उपाय खोज लेते, कोई रास्ता बना लेते। वियोग नहीं हो सकता है, इसलिए योग असंभव है। ऐसी समझ तुम्हारे मन में गहरी बैठ जाए, ऐसी समझ तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाए, तो अचानक खोज समाप्त हो गई; जिसे कभी खोया ही नहीं, उसे पा लिया। यह केवल बोध का रूपांतरण है। न तो कुछ पाने को है, न कुछ खोने को है; सिर्फ समझ की क्रांति है; सिर्फ आंख खोलकर स्थिति को देखना है।*
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दूसरी बात : जो भीतर है, उसे पाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि, सारी इंद्रियां बाहर खुलती हैं। आंख बाहर देखती हैं; हाथ बाहर छूते हैं; कान बाहर की आवाज सुनते हैं; नासापुट बाहर की गंध लेते हैं - सारी इंद्रियां बाहर की तरफ खुलती हैं। क्योंकि इंद्रियां प्रकृति का हिस्सा हैं, प्रकृति से जुड़ी हैं। प्रकृति बाहर है; परमात्मा भीतर है। और प्रकृति से जुड़ने के लिए इंद्रियों की जरूरत है। इंद्रियां न हों तो तुम्हारा प्रकृति से संबंध छूट जाएगा। अंधे आदमी का क्या संबंध है प्रकाश से ? बहरे का क्या संबंध है संगीत से, शब्द से ? इंद्रियां न हों तो प्रकृति से संबंध छूट जाएगा।
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अब कुछ बारीक मामला है, ठीक से समझ लेना। और इंद्रियां हों तो परमात्मा से संबंध छूट जाएगा। क्योंकि, भीतर के लिए किसी इंद्रिय की आवश्यकता नहीं। दूसरे से जुड़ना हो तो संबंध बनाने के लिए कुछ आधार चाहिए। अपने से ही जुड़ने के लिए क्या आधार जरूरी है ? भीतर आँख जा नहीं सकती; हाथ नहीं जा सकते - आवश्यकता भी नहीं है।
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कमरे में अंधेरा हो तो रोशनी जला लो, कमरे में रोशनी हो जाती है। लेकिन कमरे में अंधेरा हो, तब भी तुम्हारे भीतर तो अंधेरा नहीं होता। कमरे में रोशनी जल जाए, जब भी तुम्हारे भीतर रोशनी नहीं होती; बाहर-ही-बाहर सब घटता रहता है। कितना ही गहन अंधेरा हो, तुम्हें अपना तो पता चलता रहता है अंधेरे में भी कि मैं हूं। किसी का पता नहीं चलता, टेबल का पता नहीं चलता; दीवाल का पता नहीं चलता; कोई और बैठा हो कमरे में, उसका पता नहीं चलता; तुम्हारा प्रियतम बैठा हो, उसका पता नहीं चलता; भगवान की मूर्ति रखी हो कमरे में, उसका पता नहीं चलता - सब खो जाता है अंधेरे में। क्योंकि आंख की इंद्रिय रोशनी में काम कर सकती है; बिना रोशनी के आंख बेकार हो जाती है; 
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*बाहर का कुछ पता नहीं चलता। क्या तुम्हें यह भी भूल जाता है कि तुम हो ? तुम्हें अपना होना तो पता चलता ही रहता है। तुम्हें अपने होने की तो अहर्निश धारा बनी रहती है। कोई रोशनी तुम्हारे जानने के लिए कि तुम हो, जरूरी नहीं; कोई इंद्रिय जरूरी नहीं। तुम इंद्रियों के पीछे छिपे हो। इंद्रियां प्रकृति से जोड़ती हैं। इंद्रियां न हों तो प्रकृति से संबंध टूट जाता है। इंद्रियां परमात्मा से तोड़ती हैं। इंद्रियां न हों तो परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है। भीतर की यात्रा अतींद्रिय है; वहां इंद्रियों को छोड़ते जाना है। जब तुम्हारी दृष्टि आंख को छोड़ देती है, तब भीतर की तरफ मुड़ जाती है।*
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और यह जरा समझ लो। आंख नहीं देखती है; आंख के भीतर से तुम्हारी दृष्टि देखती है। इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि तुम खुली आंख बैठे हो, कोई रास्ते से गुजरता है और दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि तुम्हारी दृष्टि कहीं थी; तुम किसी और सपने में खोए थे भीतर; तुम कुछ और सोच रहे थे। आंख बराबर खुली थी, जो निकला उसकी तस्वीर भी बनी; लेकिन आंख और दृष्टि का तालमेल नहीं था; दृष्टि कहीं और थी - वह कोई सपना देख रही थी, या किसी विचार में लीन थी।
ओशो- कबीरवाणी

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