रविवार, 8 जुलाई 2018

= १८६ =


卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू दिन दिन राता राम सौं, दिन दिन अधिक स्नेह ।*
*दिन दिन पीवै रामरस, दिन दिन दर्पण देह ॥* 
*दादू दिन दिन भूलै देह गुण, दिन दिन इंद्रिय नाश ।*
*दिन दिन मन मनसा मरै, दिन दिन होइ प्रकाश ॥* 
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साभार ~ Gems of Osho

*अंतर्भाव*
मेरे प्रिय आत्मन,
एक नया मंदिर बन रहा था उस मार्ग से जाता हुआ एक यात्री उस नव निर्मित मंदिर को देखने के लिए रुक गया। अनेक मजदूर काम कर रहे थे। अनेक कारीगर काम कर रहे थे। न मालूम कितने पत्थर तोड़े जा रहे थे। एक पत्थर तोड़ने वाले मजदूर के पास वह यात्री रुका और उसने पूछा कि मेरे मित्र, तुम क्या कर रहे हो? उस पत्थर तोड़ते मजदूर ने क्रोध से अपने हथौड़े को रोका और उस यात्री की तरफ देखा और कहा, क्या अंधे हो ! दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। और वह वापस अपना पत्थर तोड़ने लगा। 
वह यात्री आगे बढ़ा और उसने एक दूसरे मजदूर को भी पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था। उसने भी पूछा, क्या कर रहे हो? उस आदमी ने अत्यंत उदासी से आंखें ऊपर उठाई और कहा, कुछ नहीं कर रहा, दाल-रोटी कमा रहा हूं। वह वापस फिर अपना पत्थर तोड़ने लगा। 
वह यात्री और आगे बढ़ा और मंदिर की सीढ़ियों के पास पत्थर तोड़ते तीसरे मजदूर से उसने पूछा, मित्र क्या कर रहे हो? वह आदमी एक गीत गुनगुना रहा था। और पत्थर भी तोड़ रहा था। उसने आंखें ऊपर उठायीं। उसकी आंखों में बड़ी खुशी थी। और वह बड़े आनंद के भाव से बोला, मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं। फिर वह गीत गुनगुनाने लगा और पत्थर तोड़ने लगा।
वह यात्री चकित खड़ा हो गया और उसने कहा कि तीनों लोग पत्थर तोड़ रहे हैं। लेकिन पहला आदमी क्रोध से कहता है कि मैं पत्थर तोड़ रहा हूं, आप अंधे हैं? दिखाई नहीं पड़ता? दूसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा है, लेकिन वह उदासी से कहता है कि मैं रोजी रोटी कमा रहा हूं। तीसरा आदमी भी पत्थर तोड़ रहा था, लेकिन वह कहता है, आनंद से गीत गाते हुए कि मैं भगवान का मंदिर बना रहा हूं।
ये जो तीन मजदूर थे उस मंदिर को बनाते करीब-करीब हम भी इन तीन तरह के लोग हैं जो जीवन के मंदिर को निर्मित करते हैं। हम सभी जीवन के मंदिर को निर्मित करते हैं, लेकिन कोई जीवन के मंदिर को निर्मित करते समय क्रोध में भरा रहता है, क्योंकि वह पत्थर तोड़ रहा है। कोई उदासी से भरा रहता है क्योंकि वह केवल रोजी-रोटी कमा रहा है। लेकिन कोई आनंद से भर जाता है, क्योंकि वह परमात्मा का मंदिर बना रहा है।
जीवन को हम जैसा देखते हैं, जीवन को देखने की हमारी जो चित्त दशा होती है, वह जीवन की हमारी अनुभूति भी बन जाती है। जीवन को देखने की जो हमारी भाव दृष्टि होती है वही हमारे जीवन का अनुभव, जीवन की प्रतीति और जीवन का साक्षात्कार भी बन जाती है। पत्थर तोड़ते हुए से भगवान का मंदिर बनाने की जिसकी दृष्टि है, वह आनंद भर जाएगा। ओर हो सकता है, पत्थर तोड़ते उसे भगवान का मिलन भी हो जाए। क्योंकि उतनी आनंद की मनस्थिति पत्थर में भी भगवान को खोज लेती है। आनंद के अतिरिक्त परमात्मा के निकट पहुंचने का और कोई द्वार नहीं है।
लेकिन जो क्रोध और पीड़ा में काम कर रहा हो, उसे भगवान की मूर्ति में भी सिवाय पत्थर के और कुछ भी नहीं मिल सकता है। क्रोध की दृष्टि पत्थर के अतिरिक्त कुछ भी उपलब्ध नहीं कर पाती है। जो उदास है, जो दुखी है, वह अपनी उदासी और दुख को ही पूरी जीवन में फैला हुआ देख लें तो आश्चर्य नहीं है। हम वही अनुभव करते हैं, जो हम होते हैं। हम वही देख लेते हैं जो हमारी देखने की दृष्टि होती है। जो हमारा अंतर्भाव होता है। 
*अमृत द्वार ~ ओशो*

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