सोमवार, 9 जुलाई 2018

= १८८ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।*
*मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥* 
*पहली लोचन दीजिये, पीछे ब्रह्म दिखाइ ।*
*दादू सूझै सार सब, सुख में रहे समाइ ॥* 
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साभार ~ Gems of Osho

*दस भिक्षुओं की कथा*
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दस भिक्षु सत्य की खोज में एक बार निकले थे। उन्होंने बहुत पर्वतों-पहाड़ों, आश्रमों की यात्रा की। लेकिन उन्हें कोई सत्य का अनुभव न हो सका। क्योंकि सारी यात्रा बाहर हो रही थी। किन्हीं पहाड़ों पर, किन्हीं आश्रमों में, किन्हीं गुरुओं के पास खोज चल रही थी। जब तक खोज किसी और की तरफ चलती है, तब तक उसे पाया भी कैसे जा सकता है, जो स्वयं में है।
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आखिर में थक गए और अपने गांव वापस लौटने लगे। वर्षा के दिन थे, नदी बहुत पूर पर थी। उन्होंने नदी पार की। पार करने के बाद सोचा कि गिन लें, कोई खो तो नहीं गया। गिनती की, एक आदमी प्रतीत हुआ खो गया है, एक भिक्षु डूब गया था। गिनती नौ होती थी। दस थे वे। दस ने नदी पार की थी। लौटकर बाहर आकर गिना, तो नौ मालूम होते थे। प्रत्येक व्यक्ति अपने को गिनना छोड़ जाता था, शेष सबको गिन लेता था। वे रोने बैठ गए। सत्य की खोज का एक साथी खो गया था।
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एक यात्री उस राह से निकलता था, दूसरे गांव तक जाने को। उसने उनकी पीड़ा पूछी, उनके गिरते आंसू देखे। उसने पूछा, क्या कठिनाई है? उन्होंने कहा, हम दस नदी में उतरे थे, एक साथी खो गया, उसके लिए हम रोते हैं। कैसे खोजें? उसने देखा वे दस ही थे। वह हंसा और उसने कहा, तुम दस ही हो, व्यर्थ की खोज मत करो और अपने रास्ते चला गया।
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उन्होंने फिर से गिनती की कि हो सकता है, उनकी गिनती में भूल हो। लेकिन उस यात्री को पता भी न था। उनकी गिनती में भूल न थी, वे गिनती तो ठीक ही जानते थे। भूल यहां थी कि कोई भी अपनी गिनती नहीं करता था। उन्होंने बहुत बार गिना, फिर भी वे नौ ही थे।
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और तब उनमें से एक भिक्षु नदी के किनारे गया। उसने नदी में झांककर देखा। एक चट्टान के पास पानी थिर था। उसे अपनी ही परछाईं नीचे पानी में दिखाई पड़ी। वह चिल्लाया, उसने अपने मित्रों को कहा; आओ, जिसे हम खोजते थे, वह मौजूद है। दसवां साथी मिल गया है। लेकिन पानी बहुत गहरा है और उसे हम शायद निकाल न सकेंगे। लेकिन उसका अंतिम दर्शन तो कर लें। एक-एक व्यक्ति ने उस चट्टान के पास झांककर देखा, नीचे एक भिक्षु मौजूद था। सबकी परछाईं नीचे बनती उन्हें दिखाई पड़ी। तब इतना तो तय हो गया, इतने डूबे पानी में वह मर गया है।
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वे उसका अंतिम संस्कार कर रहे थे। तब वह यात्री फिर वापस लौटा, उसने पूछा कि यह चिता किसके लिए जलाई हुई है? यह क्या कर रहे हो? उन नौ ही रोते भिक्षुओं ने कहा, मित्र हमारा मर गया है। देख लिया हमने गहरे पानी में डूबी है उसकी लाश। निकालना तो संभव नहीं है। फिर वह मर भी गया होगा, हम उसका अंतिम दाह-संस्कार कर रहे हैं।
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उस यात्री ने फिर से गिनती की और उनसे कहा, पागलो! एक अर्थ में तुम सबने अपना ही दाह-संस्कार कर लिया है। तुमने जिसे देखा है पानी में, वह तुम्हीं हो। लेकिन पानी में देख सके तुम, लेकिन स्वयं में न देख सके ! प्रतिबिंब को पकड़ सके जल में, लेकिन खुद पर तुम्हारी दृष्टि न जा सकी ! तुमने अपना ही दाह-संस्कार कर लिया। और दसों ने मिलकर उस दसवें को दफना दिया है, जो खोया ही नहीं था।
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उसकी इस बात के कहते ही उन्हें स्मरण आया कि दसवां तो मैं ही हूं। हर आदमी को खयाल आया कि वह दसवां आदमी तो मैं ही हूं। और जिस सत्य की खोज वे पहाड़ों पर नहीं कर सकते थे, अपने ही गांव लौटकर वह खोज पूरी हो गई। वे दसों ही जाग्रत होकर, जान कर, गांव वापस लौट आए थे।
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*उन दस भिक्षुओं की कथा ही हम सभी की कथा है। एक को भर हम छोड़ जाते हैं - स्वयं को। और सब तरफ हमारी दृष्टि जाती है - शास्त्रों में खोजते हैं, शब्दों में खोजते हैं; शास्ताओं के वचनों में खोजते हैं; पहाड़ों पर, पर्वतों पर खोजते हैं; सेवा में, समाज सेवा में; प्रार्थना में, पूजा में खोजते हैं। सिर्फ एक व्यक्ति भर इस खोज से वंचित रह जाता है - वह दसवां आदमी वंचित रह जाता है, जो कि हम स्वयं हैं।*

*असंभव क्रांति ~ ओशो*

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