रविवार, 24 मार्च 2019

परिचय का अंग ३४३/३४७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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दादू संषा शब्द है, सुनहाँ संशा मारि ।
मन मींडक सूं मारिये, शंका सर्प निवारि ॥३४८॥
अब आचार्य अर्थविपर्यय-प्रदर्शन द्वारा ब्रह्मज्ञान का उपदेश करते हैं- गुरु के द्वारा उपदिष्ट तथा ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों से अन्य ब्रह्मज्ञान ही ‘खरगोश’ है, निर्मलत्व का सामान्य होने से असम्भावना, विपरीत भावना तथा काम क्रोधादि विकार ‘कुत्तों’ के सदृश हैं । क्योंकि कुत्ता भी मलिन पदार्थों के भक्षण के कारण मलिन है । असंभावनादि दोष भी मलिन है । अतः ब्रह्मज्ञान रूपी खरगोश ने कुत्तारुपी कामक्रोधादि विकारों तथा असम्भावनादि दोषों को नष्ट कर दिया ।
जिस मन को ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया वह मन मेंढक के समान है; क्योंकि मेंढक शुद्ध जल में रहता हुआ दिनरात शब्द करता रहता है । ऐसे ही शुद्ध मन में सतत ब्रह्म का स्मरण होता रहता है । संशय को सर्प की उपमा दी गई है; क्योंकि संशयग्रस्त पुरुष को ब्रह्मज्ञान होना असंम्भव है । इस प्रकार शुद्ध मन रूपी मेंढक ने संशयरूपी सर्प को मार डाला । यों, संशय के नष्ट होने से, शुद्ध मन ही ब्रह्मरूप हो गया ॥३४८॥

दादू गांझी ज्ञान है, भंजन है सब लोक ।
राम दूध सब भरि रह्या, ऐसा अमृत पोष ॥३४९॥
इस साखीवचन में भेड़ के दूध को ब्रह्मज्ञान की उपमा दी गई है । जैसे ब्रह्मज्ञान सर्वसंसार के ताप का नाशक और मुक्तिप्रद है वैसे ही भेड़ का दूध भी संघात(चोट) जन्य पीड़ा का नाशक तथा गाढ़ा होने से दुर्जर है । सत्संग को ही दुग्धधारक पात्र कहा गया है । सत्संग से ही साधक ब्रह्मज्ञान को धारण करता है । अन्यथा, कुसंग से उसके नष्ट होने का डर है ।
अथवा- जहाँ ब्रह्मज्ञान प्रकाशित होता हो उसे ‘लोक’ कहते हैं । यों लोक का अर्थ हुआ ‘अन्तःकरण’ । जिसने अपने अन्तःकरण में सत्संग मेषदुग्धवत्, ब्रह्मज्ञान को धारण कर लिया वह साधक पुष्ट होता हुआ अमर हो जाता है । यह इस साखीवचन का निष्कर्ष है ॥३४९॥

दादू झूठा जीव है, गढिया गोविन्द बैन ।
मनसा मूंगी पंखि सौं, सूरज सरीखे नैन ॥३५०॥
गर्भस्थ जीवात्मा गर्भ के दुःखों से दुःखी होकर भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप मुझे इस गर्भरूपी कारागार से शीघ्र ही मुक्त करो । मैं यहाँ बहुत कष्ट पा रहा हूँ । आपके श्रीचरणों का सहारा लेकर मैं अपनी आत्मा का, आत्मा के द्वारा जो कि मेरा मित्र है उद्धार करूंगा । जिससे फिर कभी इस गर्भवास को दुःख न पा सकूं । यों, प्रार्थना करता हुआ बाहर आता है । किन्तु बाहर आते ही अपनी प्रतिज्ञा भूल कर संसार में पुनः आसक्त हो जाता है । अतः अपने प्रतिज्ञा भंग के कारण यह जीव मिथ्याभाषी हो गया ।
कदाचित् सत्संग पाकर, छिद्रों की खोज में लगी हुई चींटी की तरह यह मन विवेक वैराग्य के सहारे से सत्य-असत्य का निर्णय कर अपने अज्ञानान्धकार को नष्ट कर देता है । तब वह विवेकवान् होकर अपनी प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिये प्रयत्न करता है । गुरुकृपा से जीव के अन्तःकरण में जब ब्रह्मज्ञान हो जाता है तब सर्वत्र आकाशवत् व्यापक ब्रह्म में प्रवेश हेतु सुर्यतुल्य विवेक-वैराग्यरूपी पंखों से उड़ता है । तब अज्ञाननाश से वह जीव ब्रह्मरूप हो जाता है ॥३५०॥
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सांई दीया दत घणाँ, तिसका वार न पार ।
दादू पाया राम धन, भाव भक्ति दीदार ॥३५१॥
इतिश्री महात्मारामस्वामिकृतभावार्थदीपिकायां परिचय अंग समाप्तः ॥३५१॥
महाराज इस साखीवचन से अपनी कृतकृत्यता बता रहे हैं । अहो ! भगवान् ने मुझे अत्यन्त अनुग्रहीत कर दिया कि उन्होंने मुझको अनन्त धन(ब्रह्मज्ञानरूप) दे दिया । जिस ज्ञान के कारण मुझे श्रद्धाभाव, भगवद्भक्ति एवं ब्रह्मसाक्षात्कार – तीनों ही प्राप्त हो गये ।
“मैं धन्य हूँ, मैं धन्य हूँ कि अब मैं सांसारिक दुःखों से मुक्त हो गया । और मेरा समस्त अज्ञान नष्ट हो गया । मैं धन्य हूँ, मैं धन्य हूँ कि मेरा अब कोई कर्तव्य कर्म शेष नहीं रह गया । मैं धन्य हूँ, मैं धन्य हूँ कि मुझे जो कुछ प्राप्त करना था, वह सब मिल गया । अहो ! यह शास्त्र, यह गुरु, यह ज्ञान – सभी धन्य है कि जिन की कृपा से मुझे सब अलौकिक सुख प्राप्त हो गया । और मैं कृतकृत्य हो गया” ॥३५१॥
॥ इतिश्री महात्मारामस्वामिकृतभावार्थ दीपिकायां भाषानुवादे परिचयस्याङ्ग समाप्तः ॥

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